पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय-34 राव मालदेव के पश्चात मारवाड़ व राव उदयसिंह राजा मालदेव की मृत्यु के पश्चात् मारवाड़ राज्य के इतिहास का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ। वहाँ के शासन और सम्मान में अनेक प्रकार के परिवर्तन हो गये। मालदेव के समय तक मारवाड़ में सिहा जी के वंशजों का शासन रहा और अव वह शासन मुगलों की अधीनता में जीवन के दिन व्यतीत करने लगा। मारवाड़ में जहाँ पर राजपूतों का पंचरंगा झण्डा फहराता था, वहाँ पर अव मुगलों का झण्डा फहरा रहा था। जहाँ को शासन सत्ता राठौड़ों के संकेत पर चल रही थी. वहाँ पर मुगलों की सत्ता काम करने लगी। राजा मालदेव के अन्तिम दिनों में मुगलों का आधिपत्य मारवाड़ के नगरों में आरम्भ हुआ और उसके मरने के पश्चात् सम्पूर्ण राज्य को मुसलमानों की पराधीनता स्वीकार करनी पड़ी। उदयसिंह राजा मालदेव का वड़ा लड़का था। पिता के मरने के बाद सिंहासन का वही अधिकारी था। परन्तु सम्राट अकवर की आज्ञा के विना वह सिंहासन पर बैठ न सका। उसका अधिकार अकवर की प्रसन्नता पर निर्भर था। राज्य सिंहासन को प्राप्त करने के लिये अकवर को प्रसन्न करना उदयसिंह के लिये सभी प्रकार आवश्यक था। उसके अन्त:करण में राजपूतों का स्वाभिमान न था। पूर्वजों के उज्जवल गौरव को सम्मान देने की योग्यता.उसमें न थी। उदयसिंह सिहाजी का अयोग्य वंशज था। उसने स्वाभिमान और स्वातन्त्रय के सामने राज-सिंहासन को अधिक महत्व दिया। उसने अकवर को प्रसन्न करने में सफलता प्राप्त की। राजा मालदेव का सिंहासन और मारवाड़ का राज्याधिकार प्राप्त हुआ, लेकिन पूर्वजों का स्वाभिमान और गौरव उसे खो देना पड़ा। वादशाह अकवर की आज्ञा लेकर उदयसिंह पिता के सूने राज्य सिंहासन पर बैठा और इस सिंहासन के प्रत्युपकार में उसे अपनी वहन का मुगल घराने में व्याह कर देना पड़ा। उदयसिंह ने मुगल दरवार में मनसवदारी का पद प्राप्त किया और उस दिन से मारवाड़ खुलकर मुगलों की पराधीनता में आ गया। सम्वत् 1625 में राठौड़ राजा मालदेव का परलोकवास हुआ। उसका सबसे बड़ा लड़का उदयसिंह उसका उत्तराधिकारी था और वही उसके वाद राज सिंहासन पर बैठा परन्तु भट्ट प्रन्यों में लिखा गया है कि राजा मालदेव का दूसरा लड़का चन्द्रसेन जब तक जीवित रहा, उदयसिंह को राजसिंहासन प्राप्त नहीं हुआ। मालदेव के समय में ही उदयसिंह की जिन्दगी का रास्ता विगड़ा हुआ दिखायी देता था। उनके मनोभावों में पूर्वजों के गौरव के प्रति सम्मान न था, उसमें स्वाभिमान का बिलकुल अभाव था। वह स्वार्थी था और किसी - 391