। था। उस समय जो उसके सामने पहुँचा, उसी का उसने संहार किया। थोड़े से समय के भीतर उसके हाथ से पाँच मुगल सेनापति मारे गये। बादशाह का दरवार रक्तमय हो उठा। इस भयानक दृश्य को देखकर उसके साले अर्जुन गौड़ ने उसको रोकने की चेष्टा की। लेकिन कोई परिणाम न निकलने पर उसने सम्हल कर अमर पर आक्रमण किया और अपनी तलवार से उसको घायल करके पृथ्वी पर गिरा दिया। अमर की मृत्यु हो गयी। यह देखकर अमर के सरदार उत्तेजित हो उठे और अर्जुन गौड़ से अमर का बदला लेने के लिये वे तैयार हो गये। उसके बाद उन लोगों ने लड़ने की तैयारी की। चम्पावत बल्लू और कुम्पावत भाऊ नाम के दो शूरवीर राजपूत उस सेना के सेनापति हुये, जो मुगलों से युद्ध करने के लिये अमर के सरदारों के द्वारा तैयार की गयी थी। वे राजपूत बड़ी तेजी के साथ लाल किले में पहुँच गये। इन राजपूतों की संख्या बहुत थोड़ी थी। परन्तु दरवार में अमर का मारा जाना वे सहन न कर सके और उसका बदला लेने के लिये वे तैयार हो गये। राजपूतों के इस आक्रमण को रोकने के लिये मुगलों की सेना आ गयी और उसने इन राजपूतों पर आक्रमण किया। दोनों तरफ से युद्ध आरम्भ हुआ। राजपूतों ने कुछ समय तक भयानक मारकाट की। मुगल सेना बहुत बड़ी थी। इसलिये राजपूत सरदार और उनके सैनिक मारे गये। अमर का विवाह बूंदी की राजकुमारी के साथ हुआ था। अमर के मारे जाने पर उसकी रानी चिता बनाकर उस पर बैठी और अपने पति के शव को लेकर प्रज्वलित चिता की आग में भस्मीभूत हो गयी। अमरसिंह के मारे जाने पर उसके सैनिकों और सुरदारों ने मुगलों के साथ युद्ध किया और अपने प्राणों को उत्सर्ग किया। अपने सम्मान और स्वाभिमान के लिये जो राजपूत बलिदान हुये, वे आज संसार में नहीं हैं। परन्तु उनके बलिदानों की कथाएँ आज भी जीवित हैं और उनको कभी मिटाया नहीं जा सकता। अमरसिंह के सरदारों और सैनिकों ने जिस बुखारा नामक सिंहद्वार से लाल किले के भीतर प्रवेश किया था, वह ईटों से बन्द करा दिया गया और उसी दिन से वह सिंहद्वार 'अमरसिंह का फाटक' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह फाटक बहुत समय तक बन्द रहा। सन् 1809 में जब जार्ज स्टील नामक अंग्रेज यहाँ पर आया तो उसके आदेश से वह फाटक खोला गया। अमरसिंह के उत्तराधिकारी होने पर भी उसके पिता गजसिंह ने उसको राज्याधिकार से वंचित कर दिया था। इसके कारणों का कोई उल्लेख न मिलने पर भी जो घटनायें बाद में उपस्थित होती हैं, उनसे साफ जाहिर हो जाता है कि अमर अनुत्तरदायी, अव्यावहारिक और उद्दण्ड था। उसके इन्हीं अपराधों के कारण उसके पिता राजा गजसिंह ने उसको राज्य में रहने नहीं दिया। उस समय उसे बादशाह ने अपने यहाँ शरण दी थी। परन्तु उसके उद्दण्ड स्वभाव के कारण वहाँ पर भी वह सकुशल न रह सका। उसने स्वयं अपना नाश किया और उसके साथ जिनका सम्बन्ध था, उन सबके संहार का वह कारण बना।। 1. इन घटनाओं से उस समय की बहुत-सी बातों का मनुष्य को ज्ञान होता है। जिस समय का यह इतिहास लिखा जा रहा है। अमरसिंह को अपराधी जानते हुये भी शाहजहाँ ने उसको अपने यहाँ सम्मानपूर्ण स्थान दिया था। एक अयोग्य मनुष्य को आश्रय देने का जो फल मिलता है, शाहजहाँ को भी वही मिला। बादशाह शाहजहाँ ने अमर के अपराधों का दण्ड उसके पुत्र को नहीं दिया। बल्कि उसके लड़के को बादशाह ने नागौर के सिंहासन पर बिठाया। उसका नाम रायरि था। नागौर की यह जागीर अमर के वंशजों में बहुत दिनों तक चलती रही। रायसिंह के बाद हठीसिंह, उसका बेटा अनूपसिंह, उसका बेटा इन्द्रसिंह और उसका बेटा मोहकम सिंह उसका मालिक रहा। 402
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