सिरोही के राजा सुरतान को सान्त्वना देकर कहा कि आप वादशाह से मुलाकात करें। इससे आपकी कोई हानि न होगी। राव सुल्तान ने इस बात को स्वीकार कर लिया। बादशाह से भेंट करने के लिए सुरतान शाही कर्मचारियों के साथ रवाना हुआ। रास्ते में उन कर्मचारियों ने सुरतान को समझाया कि बादशाह के सामने पहुँच कर सलाम करना। इस बात को भूल न जाना। कर्मचारियों के इस उपदेश को सुन-सुन कर राव सुरतान के स्वाभिमान को जोर का आघात पहुँचा। उसने अपने मन में कहा : “मेरे प्राण वादशाह के हाथ में हैं और मेरा सम्मान मेरे अधिकार में है। जो मेरे अधिकार में है, उसकी मैं रक्षा करूँगा।” कर्मचारियों ने जब उसके मुख से कुछ उत्तर न सुना तो उनको संदेह पैदा हुआ लेकिन राजा जसवन्त सिंह ने राव सुरतान के सम्बन्ध में उन्हें बहुत समझा बुझाकर भेजा था। इस लिए कर्मचारियों ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया। जो कर्मचारी राव सुरतान को बादशाह के पास ले जा रहे थे, उनको विश्वास हो गया कि यह बादशाह को सलाम नहीं करेगा। इसलिए राजा जसवन्तसिंह की बातों को ध्यान में रखकर राव सुरतान को ऐसे रास्ते से बादशाह के सामने ले गये, जो एक आदमी की छाती से ऊंचा न था। उस रास्ते को पार करते ही राव सुरतान ने अपने आप को वादशाह के सामने पाया। उसका उस रास्ते से पार होना बादशाह के निकट सम्मानपूर्ण अभिवादन के रूप में स्वीकार किया गया। बादशाह ने अपने सामने राव सुरतान को देखा। उसका वीरोचित शरीर, ऊंचा मस्तक और साहसपूर्ण मुख मण्डल देखकर बादशाह को प्रसन्नता हुई। उसने राव सुल्तान को न केवल क्षमा ही कर दिया, बल्कि उसकी पसन्द के अनुसार वादशाह ने उसको एक जागीर देना भी स्वीकार किया। बादशाह की इस उदारता से राव सुरतान को संतोष नहीं मिला। वह एक स्वाभिमानी राजपूत था। उसने बादशाह की इस उदारता में अपनी पराधीनता को अनुभव किया। वह अभी तक एक छोटा किन्तु स्वतंत्र राजा था और राव उसकी उपाधि थी। लेकिन बादशाह इस समय उसको एक जागीर देकर अपनी अधीनता में एक सामन्त बनाना चाहता था। राव सुरतान को इससे कभी भी संतोप न मिल सकता था। इसलिए उसने निर्भीकता के साथ कहा : "बादशाह, आप ने मुझे मेरी पसन्द के अनुसार जागीर देने का वचन दिया है। इसके लिए मैं आपका शुक्रिया अदा करता हूँ और अपनी पसन्द को आप के सामने रखते हुए कहना चाहता हूँ कि अपने छोटे-से राज्य में मुझे रहने का अवसर दिया जाये। मेरा अचलगढ़ राज्य मेरे लिए सबसे बड़ी जागीर है।" स्वाभिमानी देवड़ा राजा सुरतान की बात को सुन कर बादशाह को किसी प्रकार का क्षोभ नहीं हुआ। उसने उदारता के साथ उसकी माँग को स्वीकार कर लिया और उसे आबू के दुर्ग में चले जाने की आज्ञा दे दी, राव सुरतान अचलगढ़ वापस लौट गया। 414
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