लोग अत्याचारों का बदला लेंगे।" राठौड़ सामन्तों ने अजीत के प्राणों की किसी प्रकार रक्षा कर ली थी। परन्तु अब उनके सामने उन स्त्रियों के गौरव का प्रश्न था, जो काबुल से उनके साथ आयी थीं। उनके धर्म की रक्षा कैसे होगी, इस प्रश्न को लेकर राठौड़ सामन्त बार-बार सोचने लगे। मुगल सेना ने चारों ओर से घेरा डाल रखा था। उनको घेरे से बाहर ले जाने का कोई रास्ता न था।"
इसलिए उन सामन्तों ने साथ की स्त्रियों का अंत करने का निर्णय किया। क्योंकि इसके सिवा उनके धर्म की रक्षा का दूसरा कोई उपाय न था। घर के भीतर एक बड़े कोठे में बहुत सी बारूद, फूस और लकड़ी एकत्रित की गई। राजपूत स्त्रियों ने अपने देवता का नाम लेकर उस कोठे में प्रवेश किया। उसके बाद कोठे का दरवाजा बंद कर दिया और एक सुराख से बारूद में आग लगा दी गयी। कोठे के भीतर एकत्रित बहुत-सी बारूद का ढेर एक साथ जल उठा और थोड़ी देर में वे समस्त स्त्रियाँ राख के ढेर में परिणित हो गयीं।
राठौड़ सामन्तों का पहला कार्य था किसी प्रकार शिशु अजीत की रक्षा करना और दूसरा कार्य था अपनी स्त्रियों और लड़कियों के धर्म को सुरक्षित रखना। इन दोनों कार्यों के सम्बन्ध में जो कुछ सम्भव हो सकता था, मुगलों की राजधानी दिल्ली में उन्होंने किया। अजीत की जान बचाने में उनको सफलता मिली। स्त्रियों के धर्म की रक्षा करने के लिए उनको उनके प्राणों का अंत करना पड़ा। अब वे मुगल सेना के साथ युद्ध करने के लिये तैयार हो गये। अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर राठौड़ों ने मुगल सेना का सामना किया। बात की बात में घमासान युद्ध जारी हो गया। उस मारकाट में दूहड़ के वंशजों ने भयानक रूप से मुगल सैनिकों का संहार किया।[१]
नौ हजार मुगल सैनिकों ने थोड़े से राठौड़ों के साथ युद्ध आरम्भ किया था। इस लड़ाई में राठौड़ों को स्वयं सफलता की आशा न थी। लेकिन युद्ध के सिवा उनके सामने और दूसरा कोई उपाय न था। उन मुगल सैनिकों से भीषण मारकाट करते हुए रत्नसिंह मारा गया उसके बाद कई एक राठौड़ धराशाही हुए। चंद्रभान ने अपने प्राणों की बलि दी। राठौड़ों के साथ जो शूरवीर योद्धा थे, वे एक-एक करके मारे जाने लगे। कवि चन्द बड़े साहस के साथ अपने दोनों हाथों में तलवारें लिये शत्रुओं के साथ युद्ध कर रहा था। थोड़ी ही देर में वह भी मारा गया।
मुगल सेना के साथ थोड़े से राठौड़ों का यह युद्ध श्रावण कृष्ण पक्ष सम्वत् 1736 सन् 1680 ईसवी में हुआ। भट्ट ग्रंथों में इस युद्ध का वर्णन भली प्रकार किया गया है। शूरवीर राठौड़ों ने अपने प्राण देकर शिशु अजीत की रक्षा की। राठौड़ सामन्त ने बड़ी बुद्धिमानी से काम लिया था। दिल्ली में पहुँच जाने के बाद अजीत के प्राणों को बचाने के लिये उनके पास कोई उपाय न था। इसलिये उन्होंने मिष्ठान बँटवाने का प्रबन्ध किया और मिठाइयों से भरे हुये जो बडे-बडे टोकरे वहाँ से भेजे गये, उनमें एक टोकरे के भीतर राठौड़ सामन्तों ने अजीत को छिपा दिया। वह टोकरा-जिसमें अजीत को छिपाया गया था-एक मुसलमान को सौंपा गया। वह पहले से राठौड़ों का विश्वासी था। वह टोकरा एक मुसलमान के द्वारा रवाना किया गया। इसलिये उस पर किसी शाही कर्मचारी को संदेह न हो सकता था। राठौड़ों की यह दूरदर्शिता थी। लोग पहले से उस मुसलमान का विश्वास करते थे। उस टोकरे को ले जाने वाला मुसलमान जानता था कि इस टोकरे में राजा जसवंत सिंह का शिशु छिपाया गया है। राठौड़ों ने उससे यह बात छिपाकर नहीं रखी थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उस मुसलमान ने अजीत के प्राणों की रक्षा करने में सहायता की।
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- ↑ मारवाड़ में दूहड़ नाम का एक राजा हुआ था राव उसकी उपाधि थी।