दूसरे दिन सवेरे शाहजादे अकबर ने सेनापति तहब्बर खाँ के मारे जाने और राठौड़ तथा अपनी सेना के वहाँ से भाग जाने का समाचार सुना। उसकी समझ में वह रहस्य न आया। सबसे पहले उसने अपनी फौज को खोजा। उस समय उसके साथ एक हजार सैनिक भी न रह गये थे। अपनी फौज को पाने के बाद उसने राठौड़ सेना का पता लगाया। राजपूत सेना के मिल जाने पर अकबर ने राठौड़ के सन्देह को दूर करने की कोशिश की।
इसके पहले तहब्बर खाँ के पत्र से राठौड़ों को मालूम हुआ था कि अकबर अपने पिता औरंगजेब के साथ मिल गया है। इसलिए अब वे अकबर का विश्वास करने में बहुत सोच-विचार कर रहे थे। चम्पावत, कुम्पावत, पातावत, लाखावत, कर्णोत, डुंगरोत, मेड़तिया, वरसिंहोत, ऊदावत और विदावत आदि सामन्त एक स्थान पर बैठकर परामर्श करने लगे कि अकबर के साथ हमें अब क्या करना चाहिये। उस परामर्श के अन्त में सभी लोगों ने मिलकर निश्चय किया कि अकबर के मिल जाने के सम्बन्ध में जो पत्र मिला है, वह रहस्यपूर्ण मालूम होता है। क्योंकि उसके बाद ही तुरन्त सेनापति तहब्बर खाँ बादशाह औरंगजेब के आदेश से मारा गया है। इससे साफ जाहिर है कि अकबर के इधर मिल जाने से औरंगजेब का पड़यन्त्र चल रहा है। इस दशा में अभी तक अकबर का कोई अपराध नहीं है। जब तक वह हम लोगों से अलग नहीं हो जाता, हमें भी उसे छोड़ नहीं देना चाहिये।
अकबर और उसके साथ के सैनिक सेना के साथ मिलकर फिर एक हो गये। चम्पावत सरदार के छोटे भाई जैता को अकबर के परिवार की रक्षा का भार सौंपा गया। दुर्गादास ने बड़ी सावधानी और गम्भीरता के साथ, भविष्य के उत्तरदायित्व को अपने ऊपर लिया। इन दिनों में जिस प्रकार दुर्गादास साहस, धैर्य और शौर्य से काम ले रहा था, उसकी प्रशंसा भट्ट ग्रन्थों में बहुत अधिक की गयी है। उसी की शक्तियों के द्वारा इन दिनों में मारवाड़ विध्वंस होने से बच सका था। उसी ने अपने प्राणों की बाजी लगा कर शिशु अजीत की रक्षा की थी। उसने महान शक्तिशाली सम्राट औरंगजेब की परवाह न की।
अन्य सभी शत्रुओं की अपेक्षा दुर्गादास के द्वारा औरंगजेब की परेशानियाँ अधिक बढ़ गयी थीं। इन दिनों में बादशाह के दो शत्रु शिवाजी और दुर्गादास अधिक विद्रोही हो रहे थे। औरंगजेब ने एक चित्रकार को बुलाकर उन दोनों के चित्र लाने का आदेश दिया। कुछ समय में चित्रकार ने दोनों चित्र लाकर बादशाह औरंगजेब के सामने रखे। शिवाजी का चित्र एक आसन पर बैठा हुआ था और दुर्गादास अपने भाले की नोक में रोटी पिरोकर उसे आग पर सेंक रहा था। औरंगजेब ने दोनों चित्रों को देखकर कहा–"मैं शिवाजी को तो किसी प्रकार जाल में फंसा सकता हूँ परन्तु यह कुत्ता मेरी जिन्दगी के लिये जहर से भी ज्यादा खतरनाक हो गया है।"
दुर्गादास और शाहजादा अकबर मिलकर अब फिर एक हो गये थे। औरंगजेब पर आक्रमण करने के लिये दुर्गादास तैयारी करने लगा। इन्हीं दिनों में बादशाह औरंगजेब ने उसके विरुद्ध एक नया जाल तैयार किया। उसने सेनापति तहब्बर खाँ को फँसा कर शाहजादा अकबर को दुर्गादास से अलग करने की जो कोशिश की थी, उसकी वह चाल असफल हो गयी थी। अब उसने दुर्गादास को फँसाने के लिये एक नयी कोशिश की। उसने आठ हजार सोने की मोहरें दुर्गादास के पास भेज दीं और उसके बाद भी उसने उसको प्रलोभन दिये। परन्तु दुर्गादास पर इन प्रलोभनों का कोई प्रभाव न पड़ा। दुर्गादास ने पायी हुई मोहरों का जिक्र शहजादे अकबर से किया और उनमें से बहुत सी मोहरें अकबर की जरूरतों में खर्च की गयीं। कुछ रुपया दोनों तरफ के गरीब नौकरों में बाँटा गया।
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