अध्याय-43 राजा विजयसिंह व मराठे वख्तसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका बेटा विजयसिंह बीस वर्ष की अवस्था में मारवाड़ के सिंहासन पर बैठा। उन दिनों में दिल्ली का मुगल बादशाह नाम मात्र के लिये वादशाह रह गया था। क्योंकि उसके शासन की शक्तियाँ इन दिनों में बिल्कुल क्षीण हो गई थीं और मुगल साम्राज्य के हिन्दू-मुस्लिम शासकों ने उसके प्रभुत्व को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। मुगलों की अधीनता को तोड़कर छोटे और बड़े सभी राजा अपने आपको स्वतंत्र समझने लगे थे फिर भी मारवाड़ के सिंहासन पर बैठकर प्राचीन प्रथा के अनुसार विजयसिंह ने अपने अभिषेक का समाचार दिल्ली के बादशाह के पास भेजा। उसे मुगल सम्राट ने स्वीकार किया। उस समय राजस्थान के अन्यान्य राजाओं ने विजयसिंह के अभिषेक उत्सव पर बधाई के पत्र भेजें। मारोठ नामक स्थान मारवाड़ की सीमा पर बसा हुआ था, विजयसिंह का अभिषेक उत्सव वहीं पर किया गया। उस समय विजयसिंह ने मारोठ से मेड़ता जाकर पिता की मृत्यु के कारण कुछ दिन शोक में व्यतीत किये। वहाँ पर बीकानेर, कृष्णगढ़ और रूपनगर के स्वतंत्र राजा अपनी-अपनी सेनाओं को लेकर आये और सभी ने विजयसिंह के प्रति अपना सम्मान प्रकट किया। उनके सिवा सभी सामन्तों ने वहाँ पहुँचकर विजयसिंह के आदर सत्कार में अपने कर्तव्यों का पालन किया। विजयसिंह ने भी आये हुए राजाओं और सामन्तों का पूर्ण रूप से आदर सत्कार किया। उसके पश्चात् जोधपुर जाकर बड़ी धूम-धाम के साथ उसने अपने पिता का श्राद्ध किया। इस कार्य में उसने बहुत-सा धन व्यय किया और उसने कवियों, भाटों, चारणों, ब्राह्मणों और अनाथों को दान में बहुत-सा धन दिया। राज सिंहासन पर बैठने के समय विजयसिंह की अवस्था बीस वर्ष की थी। उसकी इस छोटी-सी आयु में रामसिंह उसका शत्रु हो रहा था। रामसिंह की शत्रुता के ही कारण बख्तसिंह की अकाल मृत्यु हुई थी। जिस रामसिंह ने षड़यंत्र रचकर बख्तसिंह को संसार से विदा किया था, वहीं आज बख्तसिंह के प्यारे पुत्र विजयसिंह का शत्रु हो रहा था। रामसिंह अपनी पूर्ण शक्तियों के द्वारा विजयसिंह को सिंहासन पर बैठने से रोकना चाहता था। इसके लिए उसने सभी प्रकार की चेष्टायें की। परन्तु मारवाड़ राज्य के सामन्तों, सरदारों और मंत्रियों ने विजयसिंह के पक्ष का समर्थन किया। इसलिए रामसिंह की कोई भी चेष्टा सफल न हो सकी और रामसिंह को असफल बनाकर विजयसिंह अपने पिता के सिंहासन पर बैठा। 471
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