पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राजपूत भैंसों की हिंसा करते हैं, सुअर और हुरिन का शिकार करके उनके मांस को भोजन के रूप में खाते हैं। वे अपने घोड़े, तलवार और सूर्य की पूजा करते हैं और ब्राह्मणों के मंत्रों के मुकावले में वे वीर रस से भरे हुए भाटों की कविताओं को अधिक पसंद करते हैं। ठीक इसी प्रकार का स्वभाव स्कैंडीनेविया के लोगों का पाया जाता है। उनकी देवकथाओं में वीरता के कथानक पाये जाते हैं और उनकी किताबों में वीर रस पूर्ण कवितायें मिलती हैं। पूर्व और पश्चिम की इन जातियों की आलोचना करने से पता चलता है कि इन जातियों के आदि पुरुष एक ही थे और उनकी उत्पत्ति एक दूसरे से भिन्न नहीं है। भाट कवि.राजपूतों को अपनी कवितायें सुनाकर जिस प्रकार युद्ध में जाने के लिये तैयार करते थे,उसी प्रकार प्राचीन काल में सैक्सन लोगों में भी इस प्रकार की प्रथा थी और उनके यहाँ भी कुछ लोग भाट कवियों की तरह का ही काम करते थे। सीटस ने उनके सम्बंध में लिखा है-युद्ध में जाने के समय वे लोग जोशीली कवितायें सुनाकर सैक्सन लोगों को युद्ध के लिये तैयार करते थे। राजपूत आज भी रामायण, गीता और अन्य हिन्दू ग्रंथों की अपेक्षा महाभारत और आल्हा अधिक पढ़ते और गाते हैं। महाभारत के समय से लेकर भारत में आक्रमण करने वाले मुसलमानों की विजय तक इंडो-सीथीक जातियों में रथ की सवारी खूब मिलती है। उसके बाद रथ की सवारी की प्रथा धीरे-धीरे कम होती गई। इसके पहले संसार की प्राचीन जातियाँ लड़ाई में रथों का अधिक प्रयोग करती थीं। रथ की सवारी का प्रचार दक्षिण-पश्चिम भारत में अभी कुछ दिन पहले भी वहुत पाया जाता था और सौराष्ट्र की काठी, कोमानी और कोमारी जातियों का रहन-सहन, उनके स्वभाव विश्व स और जिन्दगी की वहुत-सी बातें अब तक बिल्कुल सीथियन लोगों की तरह की पायी जाती हैं। प्राचीन जर्मनी और स्कैण्डीनेविया की जातियों, जेटी लोगों और राजपूतों के आचारों, सिद्धांतों और विश्वासों में सबसे अधिक समानता स्त्रियों के प्रति व्यवहारों में मिलती है। वे सभी लोग स्त्रियों के प्रति शिष्टता कुछ इस प्रकार प्रकट करते हैं, मानों उन सभी ने इस विषय में किसी एक ही स्कूल से और एक ही गुरु से शिक्षा प्राप्त की है। टैसीटस ने लिखा है कि जर्मनी के लोग अपनी स्त्रियों पर बहुत विश्वास करते हैं और उनके परामर्श को भविष्यवाणी के रूप में मानते हैं। राजपूतों की भी यही आस्था है। अपनी स्त्रियों का सम्मान करते हैं और उनके मान-समान में वे अपने प्राणों को उत्सर्ग कर देते हैं। प्राचीन काल में जुआ खेलने की आदतें सीथियन लोगों में पायी जाती थीं और उन्हीं के द्वारा जर्मनी के लोगों में इस आदत का प्रचार हुआ। राजपूतों में भी जुआ खेलने की आदतें खूब पायी जाती है। जुआ में अपना शरीर, अपनी रियासत् और अपने अधिकृत लोगों को दांव में लगा देने और हारने-जीतने की प्रथा सीथियन और जर्मनी के लोगों में थी। भारत में इसी दुर्व्यसन के कारण पांडवों ने अपना राज्य और शारीरिक स्वतंत्रता जुए में हारकर खो दी थी। समस्त हिन्दू जातियों में अब तक इस प्रकार के जुए का प्रचार है, उनके धर्म में भी इस कुप्रथा को स्थान दिया गया और वर्ष में एक दीवाली के अवसर पर जुआ खेलने की आज्ञा दी गई है । वे लोग ऐसा लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिये करते हैं। शकुन और अपशकुन पर इन जातियों का विश्वास बहुत पुराना चला आता है। जेटी. जातियों और जर्मन जातियों के लोग प्राचीन काल में शकुन और अपशकुन को बहुत मानते थे। इनको समझने के लिए उनके पास बहुत-सी बातें थीं। चिट्ठियाँ डालने और पक्षियों को उड़ते देखकर इस प्रकार की बहुत-सी बातों का वे लोग अनुमान लगाकर विश्वास करते थे। 43