गुरुदेव की मृत्यु और उसके अंतिम संस्कार का समाचार भेजा जा चुका था। इसलिये राजगुरु को श्रद्धांजलि देने के लिए सामन्त लोग अपने-अपने नगरों से रवाना हुए। जोधपुर का दुर्ग पहाड़ों के ऊपर बना हुआ था। दुर्ग में जाने के लिये पहाड़ों को खोद कर सीढ़ियाँ बनायी गयी थीं। राज्य के सभी सामन्तों के आगे-आगे देवीसिंह सामन्त चल रहा था। सीढ़ियों पर पहुँचकर उसने कहा "मुझे आज कुछ अच्छे लक्षण नहीं दिखायी देते।” देवीसिंह की इस बात को सुन कर दूसरे सामन्तों ने कहा "आप मारवाड़ राज्य के सर्वमान्य हैं। आपकी तरफ आँख उठाकर देखने का कोई साहस नहीं कर सकता।' सामन्तों ने आगे बढ़कर दुर्ग में प्रवेश किया। उसी समय उन लोगों ने देखा कि नक्कार खाने का द्वार बंद हो गया। सामन्त भयभीत हो उठे और उनके मुख से निकल गया-“ इतना बड़ा विश्वासघात ।" इसी समय अहवा के सामन्त ने अपनी कमर से तलवार निकाली और उसने राज सेना का संहार आरम्भ कर दिया। सामन्त लोग अपनी सेनाओं को साथ में नहीं लाये थे। उनको इस प्रकार के विश्वासघात की आशंका नहीं थी। राज-सेना के सामने सामन्त लोग कितनी देर युद्ध कर सकते थे, उस मार-काट में कितने ही सामन्त मारे गये और वाकी सामन्त धाभाई जग्गू की सेना के द्वारा कैद हो गये। कैदी सामन्तों को अपने भविष्य का अनुमान हो गया। इसी समय धाभाई जग्गू ने उत्तेजित होकर बन्दी सामन्तों से कहा "आप लोग इस संसार को छोड़कर परलोक यात्रा के लिए तैयार हो जाइए।" सामन्तों ने साहस के साथ उत्तर दिया - "हम सब राजपूत हैं और राजा विजय सिंह के वंश में ही हमने जन्म लिया है। हमारे प्राणों में राठौड़ों का स्वाभिमान मौजूद है। इसलिए हमारी माँग यह है कि वैतनिक सैनिकों की गोलियों से हमारे प्राणों का अन्त न किया जाये। बल्कि तलवार के द्वारा हम सब की गर्दनें काट कर फेंक दी जायें।" सामन्तों की इस मांग के सम्बन्ध में क्या हुआ, इसका कोई उल्लेख विलास नामक ग्रंथ में नही पाया जाता । धाभाई जग्गू के आदेश से चम्पावत तीन प्रमुख सामन्तों, अहवा के जगत सिंह, पोकरण के देवीसिंह, हरसौलाध के सामन्त, कुम्पावत के चन्द्र सिंह, चन्द्रायण के केशरी सिंह, नीजाम के सामन्त कुमार, रास के सामन्त और ऊदावत लोगों के प्रधान सामन्तों के जीवन अन्त किये गये। देवीसिंह राजा अजीतसिंह का बेटा था। इसलिए गोली अथवा तलवार से उसको मारने का किसी ने साहस नहीं किया। इसलिए विष के साथ अफीम को घोल कर उसे पीने को दिया गया। देवीसिंह ने उसके पीने का आदेश सुनकर आवेश में कहा “मैं इस समय एक कैदी हूँ। मुझे विष का यह प्याला पीने के लिए दिया गया है । परन्तु मैं मिट्टी के प्याले में इसे नहीं पी सकता। सोने के प्याले में मुझे यह विष पीने को दिया जाये। उस समय मैं तुरन्त आज्ञा का पालन करूँगा।" देवीसिंह की इस मांग को पूरा न किया गया और जब उसको मिट्टी के पात्र में विष पीने के लिए विवश किया गया तो उसने विष के उस पात्र को जोर के साथ दूर फेंक दिया और दीवार के विशाल पत्थर पर सिर पटक कर उसने अपने प्राण दे दिये। इसके पहले वहाँ 1. देवीसिंह को कुछ ग्रंथकारों ने अजीतसिंह का नहीं बल्कि महासिंह का बेटा माना है।-अनुवादक 480
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