पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/४३५

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मेरी वह के एक आदमी ने उससे पूछा था : 'आप की वह तलवार कहाँ है, जिसके नीचे आप मारवाड़ के सिंहासन को समझते थे?" देवीसिंह ने स्वाभिमान के साथ उस मनुष्य की तरफ देखा और कहा :- तलवार इस समय पोकरण में मेरे वेटे सवल सिंह की कमर में बंधी हुई है।' जग्गू की सहायता से विजय सिंह ने अपने राज्य के निरंकुश और स्वच्छन्द प्रधान सामन्तों को मरवा कर मारवाड़ में शान्ति की व्यवस्था की। जो सामन्त इस प्रकार मारे गये थे, वे सभी उसी वंश के थे, जिस वंश में विजयसिंह ने जन्म लिया था। उन सामन्तों के मारे जाने का कारण उनकी निरंकुशता और स्वच्छन्दता थी। सामन्तों की इस निरंकुशता का कारण विजय सिंह की निर्वलता थी। शासक की कमजोरी और उसके शासन की हीनता प्रजा में और राज्य के छोटे-बड़े सभी कर्मचारियों में अराजकता उत्पन्न करती है। शासन की निर्वलता शासक का अपराध होता है। यदि विजयसिंह की यह अवस्था न होती तो सामन्तों के स्वच्छन्द और निरंकुश होने का कोई कारण न था। जो सामन्त जग्गू के षड़यन्त्र के द्वारा मारे गये थे, उन्होंने और उनके पूर्वजों ने राज्य और राठौड़ों की मर्यादा को सुरक्षित रखने के लिए सदा अपने आप को बलिदान किया था। आज उन्हीं सामन्तों का इस प्रकार संहार विजय सिंह के गौरव का कारण नहीं बन सकता। यदि विजयसिंह में राजपूतों का बल-पौरुष होता अथवा उसके स्थान पर कोई दूसरा प्रतापशाली राठौड़ शासक होता तो राज्य के सामन्तों में अनुशासनहीनता न पैदा होती और न वे इस प्रकार मारे जाते। विजय सिंह का इस प्रकार का कार्य नैतिक प्रतिष्ठा से वंचित हो जाता है। विजय सिंह दूसरे उपायों से अपने सामन्तों को अपने अनुकूल नहीं बना सका, यह उसकी अयोग्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। जग्गू उसकी धात्री से उत्पन्न हुआ था। उसने एक सगे बंधु की हैसियत से विजय सिंह के साथ प्रेम किया था। वह प्रत्येक अवस्था में विजयसिंह का बढ़ता हुआ गौरव देखना चाहता था। विजय सिंह के प्रति उसकी शुभकामना और शुभ चिन्तन में कोई अंतर न था। उसने निरंकुश सामन्तों को नियंत्रण में लाने के लिए जो कुछ भी किया था, उसमें उसका कोई स्वार्थ न था। अपनी पवित्र भावनाओं से प्रेरित होकर विजय सिंह के कल्याण के लिए उसने सब कुछ किया था। राज्य में शान्ति की प्रतिष्ठा के लिए और वर्तमान अराजकता को नष्ट करने के लिए उसने एक वैतनिक सेना रखी थी। उसके वेतन के लिए अपनी आत्महत्या का भय दिखाकर उसने अपनी माता से पचास हजार रुपये लिए थे। इतनी बड़ी सम्पत्ति को उसने राज्य के आवश्यक कार्यों में खर्च करके अपने अपूर्व त्याग और बलिदान का परिचय दिया था। इस दशा में वह किसी प्रकार निन्दा का अधिकारी नहीं है। इतना सब होने पर भी जग्गू की प्रशंसा नहीं की जा सकती। सबसे अच्छा यह होता कि उसने नैतिक उपायों के द्वारा सामन्तों को अनुकूल बना कर राजा विजय सिंह का कल्याण किया होता। परन्तु उसमें नैतिक शक्तियों का अभाव था । इसीलिए जो राज्य के सगे सम्बन्धी थे,उनका अन्त करने के लिए उसे षड़यन्त्र की संहार नीति का आश्रय लेना पड़ा। देवीसिंह ने जिस प्रकार अपने प्राणों का अन्त किया, उसका समाचार बड़ी तेजी के साथ पोकरण में पहुँच गया। उसके पुत्र सबल सिंह ने इस प्रकार अपने पिता की मृत्यु को सुना। उसने तुरन्त क्रोध में आकर अपने पिता का बदला लेने की प्रतिज्ञा की और पोकरण के शूरवीर राजपूतों को लेकर वह पिता का बदला लेने के लिए रवाना हुआ। सबल सिंह ने सवसे पहले व्यावसायिक नगर पाली पहुँचकर लूट-मार की और बाद में उसने वहाँ आग 481