सुसज्जित दिखाया जाता है। उसके स्मारक में उसकी सती स्त्री और सूर्य-चन्द्र की आकृति भी पत्थर पर खुदी हुई देखने को मिलती है। सौराष्ट्र प्रदेश में काठी, कोमानी, वल्ला और दूसरे सीथिक वंश के लोगों में भी इसी प्रकार की प्रथायें प्रचलित थीं। तातार के कोमानी लोगों में उसी प्रकार के पत्थरों को प्रयोग में लाया जाता था, जिस प्रकार के पत्थरों के प्रयोग केल्ट लोगों में होते थे। मृत्यु के बाद इस प्रकार के स्मारक बनाने की प्रणाली प्राचीन जातियों में लगभग एक-सी थी और वह प्रणाली उन सबके एक होने की साक्षी देती है। राजपूत अपने घोड़े के भक्त होते हैं और शस्त्रों की पूजा करते हैं। तलवार, ढाल, बळ और कटार उनके विशेष हथियारों में रहे हैं और आज भी वे लोग अपने शस्त्रों को प्रणाम करते हैं एवं आवश्यकता पड़ने पर वें उनकी शपथ लेते हैं। प्रसिद्ध इतिहास लेखक हेरोडोटस ने सीथियन जेटी लोगों के सम्बंध में इसी प्रकार की अनेक वातें लिखी हैं। सैनिक शिक्षा प्राप्त करने के लिए जर्मनी के युवकों में जो प्रणाली काम में लायी जाती थी, ठीक वही राजपूतों में भी चलती है। अपने देवता को प्रसन्न करने के लिये प्राचीन जातियों में बलि देने की जो प्रथायें थीं वे एक दूसरे से बहुत भिन्न न थीं। बलिदान की प्रथा एक ही थी, वलि दिये जाने वाले पशुओं में भिन्नता थोड़ी बहुत मिलती है । हेरोडोटस ने लिखा है कि स्कैंडीनेविया के लोगों में संक्रांति का त्यौहार बड़ी धूमधाम के साथ मनाया जाता था। राजपूतों और हिन्दुओं में भी यह त्यौहार मनाया जाता है। मनुष्य जाति की उत्पत्ति होने के बाद भी, जव उनकी संख्या वढ़ी, उस समय उनके द्वारा अलग-अलग नामों से जातियों की उत्पत्ति हुई। आरंभ में उनकी भाषा एक थी, लेकिन वे लोग एक दूसरे से जितने दूर होते गये, उनकी भाषाओं में अंतर शुरू हुआ और धीरे-धीरे उनकी भाषायें भी अलग-अलग बन गयीं। उन प्राचीन भाषाओं का मिलान करने से साफ-साफ जाहिर होता है कि उन सबकी उत्पत्ति किसी एक ही भाषा से हुई है,क्योंकि उन सबकी भाषाओं में अनेक वातों की समता और एकता मिलती है। पशुओं, विभिन्न प्रकार के जीवों और अगणित चीजों के नाम उन भाषाओं में बहुत मामूली अंतर के साथ पाये जाते हैं। प्राचीन जातियों में जो त्यौहार मनाये जाते थे, उनके संस्कार अब तक अनेक बातों में समता रखते हैं। इसी प्रकार अश्वमेघ यज्ञ की प्रथा भी बहुत पुरानी है। इस यज्ञ में भयानक रूप से व्यय किया जाता था और उसका परिणाम विनाश की ओर ले जाता था। भारतीय इतिहास में उसके अनेक उदाहरण मिलते हैं। विस्तार से उन पर यहाँ अधिक नहीं लिखा जा सकता। इस यज्ञ में वहुत-से पक्षियों और जीवों के साथ-साथ, घोड़े का वध किया जाता था। इस प्रकार के वध के समय वाह्मण वेद-मंत्रों का उच्चारण करते थे। एक अपार भीड़ के बीच में यज्ञ करने वाला राजा यज्ञ के समीप वैठकर वलि दिये जाने वाले जीवों के वलिदानों को देखता था। उन जीवों के हृदयों को जव अग्नि के सुपुर्द किया जाता था तो राजा उसकी सुगंध लेता था, इस यज्ञ में ब्राह्मणों को बहुमूल्य स्वर्ण दान में दिया जाता था। इस प्रकार की प्रथायें संसार की प्राचीन जातियों में बहुत कुछ मिलती-जुलती पायी जाती थीं और उनके सम्बंध में प्राचीन धर्मों का विश्वास एक-सा था। धर्म के नाम पर इस प्रकार न केवल पशुओं के बलिदान की प्रथायें थीं, बल्कि पशुओं की तरह देवता को प्रसन्न करने के लिये मनुष्यों की वलि भी दी जाती थी, जैसा कि केल्टिक डूइन्ट लोगों के सम्बंध में प्राचीन इतिहासकारों ने लिखा है । विश्व की प्राचीन जातियों के सम्बंध में इस प्रकार जितने भी अनुसंधान किये जा सकते हैं, वे सभी इस बात का सबूत देते हैं कि आरंभ में वे सभी एक थीं और उनकी . 45
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