पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/४९७

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छत्रसिंह की मृत्यु शिशु अवस्था में ही हो गयी थी। राजसिंह को सूरतसिंह की माँ ने विष देकर मार डाला था। सुरतानसिंह और अजवसिंह इस प्रकार की दुर्घटना से भयभीत होकर जयपुर चले गये थे। इस दशा में सूरतसिंह बीकानेर के सिंहासन का अधिकारी हुआ। श्यामसिंह उस राज्य की छोटी-सी जागीर को पाकर वहीं पर रहने लगा। इस प्रकार उस राज्य में अव सूरतसिंह का कोई प्रतिद्वन्दी न रह गया था। राजसिंह वास्तव में बीकानेर के सिंहासन का अधिकारी था। गजसिंह की मृत्यु के बाद सन् 1787 ईसवी में राजसिंह बीकानेर के सिंहासन पर बैठा। उसके शासन के केवल तेरह दिन बीते थे,उसके बाद सूरतसिंह की माँ ने विश्वासघात करके उसको विष पिला दिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। राजसिंह के दो लड़के थे-प्रतापसिंह और जयसिंह। विष के द्वारा राजसिंह की मृत्यु हो जाने के बाद राज्य के मंत्री और सामन्त वहुत असंतुष्ट हुए। उनके असन्तोष को देखकर सूरतसिंह ने राजसिंह के बड़े लड़के प्रतापसिंह को सिंहासन पर विठा कर शासन का कार्य आरम्भ किया। प्रतापसिंह की अवस्था बहुत छोटी थी। इसलिए शासन के सम्पूर्ण अधिकार सूरतसिंह के हाथ में ही रहे। इस प्रकार शासन करते हुए सूरतसिंह ने अठारह महीने बिता दिये। इन दिनों में उसने राज्य के मंत्रियों और सामन्तों को पूर्ण रूप से अपने अनुकूल बनाने की चेष्टा की। उसने उनको लगातार बहुमूल्य पदार्थ भेंट में दिये और अनेक प्रकार के प्रलोभन देकर उनकी सहानुभूति को अपने पक्ष में करने की कोशिश की। सूरतसिंह ने सामन्तों, मंत्रियों और राज्य के दूसरे लोगों को दिखाने के लिए बालक प्रतापसिंह को सिंहासन पर विठाया था। परन्तु राज्य का सम्पूर्ण अधिकारी वह स्वयं था। इसलिए कि प्रतापसिंह विल्कुल वालक था। ऐसा करके सूरतसिंह संसार के नेत्रों में धूल झोंक रहा था। फिर भी उसको सन्तोष न था। वह राज्य की सम्पत्ति को अनावश्यक रूप से खर्च करके सामन्तों और मंत्रियों को मिलाने की जो चेष्टा कर रहा था, उसका एक रहस्य था। वह राजसिंह के वालक प्रतापसिंह को सिंहासन पर विठा कर और थोड़े दिनों का नाटक खेल कर संसार से उसे विदा कर देना चाहता था। इसके लिए पहले से ही सामन्तों और मन्त्रियों को मिला लेना उसके लिए जरूरी था जिससे वे लोग वाद में किसी प्रकार का विद्रोह न कर सकें। वालक प्रतापसिंह के नाम पर अठारह महीने के शासन में उसने अपनी समझ में सामन्तों और मंत्रियों को अनुकूल बना लिया। सूरतसिंह महाजन और भादराँ के सामन्तों को अपना विशेष अनुयायी और समर्थक समझता था। इसलिए उसने बालक प्रतापसिंह के सम्बन्ध में अपने विचारों को उन दोनों सामन्तों से प्रकट किया। सूरतसिंह के विचार सुनकर दोनों सामन्त घबरा उठे। उनकी समझ में सूरतसिंह का यह विचार अत्यन्त घृणित और निन्दनीय था। सूरतसिंह ने उन दोनों सामन्तों को प्रसन्न करने के लिए भूमि और सम्पत्ति दी, जिससे वे उसके अभिप्राय को किसी से प्रकट न कर सकें। फिर भी सूरतसिंह का वह इरादा अप्रकट न रह सका। बीकानेर के दीवान बख्तावर सिंह को जब सूरतसिंह के उस पैशाचिक अभिप्राय की जानकारी हुई तो उसने राजसिंह के वालक प्रतापसिंह के प्राणों की रक्षा का प्रयत्न किया। लेकिन वख्तावरसिंह की चेष्टा सफल न हो सकी। सूरतसिंह ने बख्तावरसिंह को कैद करवा लिया। 543