फौजदारी के अपराधों के निर्णय करने के लिये राणा के परामर्श की आवश्यकता होती है। इस प्रकार के निर्णय जिनके द्वारा होते हैं, वे पंचायतें कहलाती हैं। मालगुजारी और राणा के अधिकार इस विषय में यहाँ हम अधिक विस्तार में नहीं जाना चाहते। आवश्यकतानुसार, उन्हें आगामी पृष्ठों में विस्तार के साथ लिखा जायेगा। मेवाड़ राज्य में जो खालसा भूमि है, राणा की आय का साधन वही है। उसके द्वारा राज्य के कर की आय होती है। इसी खालसा भूमि पर राज्य का व्यवसाय और दूसरे कार्य निर्भर हैं। इन करों के द्वारा पहले राज्य को अच्छी आमदनी हो जाती थी और राणा लोग इन करों पर अधिक ध्यान देते थे। यह कर अधिक संख्या में राज्य के व्यवसायियों से वसूल होता था। इन व्यापारियों के साथ राज्य की तरफ से उदारतापूर्ण व्यवहार रहता था और राज्य के व्यवसायी भी निर्धारित कर राज्य को देकर अपना कर्तव्य पालन करते थे। मेवाड़ राज्य की राजनीतिक परिस्थितियाँ जितनी ही बिगड़ती गयीं और बाहरी आक्रमणकारियों के अत्याचार जितने ही राज्य में अधिक होते गये, राज्य के व्यवसायियों की परिस्थितियाँ भी उतनी ही खराब होती गयीं। आक्रमणकारियों की लूटमार के कारण राज्य की प्रजा बहुत गरीब हो गयी। साथ ही राज्य की तरफ से प्रजा की रक्षा की कोई व्यवस्था न हो सकने के कारण प्रजा की राज भक्ति में भी बहुत अंतर पड़ गया। इसका परिणाम यह हुआ कि व्यापारियों को जो कर देना पड़ता था, उसकी वसूली में बहुत कठिनाइयाँ होने लगीं। अनेक अवसरों पर मेवाड़ के राणा ने आक्रमणकारियों को अपरिमित सम्पत्ति देकर अपना खजाना खाली कर दिया था और इस दशा में राज्य की तरफ से जो कर व्यवसायियों पर बढ़ाये गये थे, पहले की अपेक्षा अधिक थे । इन करों के बढ़ने से प्रजा पीड़ित हो रही थी और व्यवसायियों के मनोभावों में बहुत अंतर पड़ गया था। यही कारण था कि एक व्यापारी ने राज्य के इन अधिक करों के सम्बंध में मुझसे कहा था “राज्य की प्रजा जितनी ही निर्धन होती जाती है, राज्य की तरफ से कर उतने ही बढ़ते जाते हैं।" इसमें संदेह नहीं कि राज्य की तरफ से जो कर बढ़े थे, उनका प्रभाव राज्य की प्रजा पर अच्छा नहीं पड़ा था। मेवाड़ के पतन के पहले राणा के साथ प्रजा का जितना शुद्ध और सम्मानपूर्ण व्यवहार था उसको फिर से कायम करने के लिए बहुत समय लगेगा। प्राचीन काल में मेवाड़ राज्य में बहुत सी खानें थीं। उन खानों से राज्य को लाखों रुपये की आय होती थी। इस राज्य में केवल जावरा की खान से जो चाँदी पायी जाती थी, वह कई लाख रुपये की होती थी। चम्बल नाम के स्थान में जो खानें थीं, उनसे लोहा, ताँबा और सीसा की उत्पत्ति होती थी। इस राज्य में कुछ खानों में कीमती पत्थर पाया जाता था। परन्तु राज्य की परिस्थितियाँ बिगड़ जाने से ये खाने नष्ट हो गयी हैं और अब उनसे लाभ उठाने के लिए असाधारण परिश्रम और धन के खर्च करने की जरूरत है।1 बरार बरार का अर्थ कर है। इस राज्य में साधारण तौर पर प्रजा से जो कर वसूल किये जाते हैं, वे इस प्रकार हैं : 'गनीमबरार' अर्थात् युद्ध सम्बंधी कर, 'घारगुंती बरार' अर्थात् घर का कर, हल बरार' अर्थात् खेती का कर, 'न्योता बरार अर्थात् विवाह मेवाड़ राज्य में सिक्का निर्माण कराने का अधिकार राणा के सिवा किसी दूसरे को नहीं है । शालुम्ब का सामन्त ताँवे का पैसा बनवा सकता है। परन्तु सोने अथवा चाँदी की मुद्रा निर्माण कराने का अधिकार उसको भी नहीं है। प्राचीन काल में इस राज्य के टकसाल घर से राणा को बहुत अधिक आय होती थी। इस प्रकार की व्यवस्था मेवाड़ राज्य में अब उसी समय हो सकती है, जब राज्य में पूरी तौर पर शांति कायम हो। 1. - 71
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