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पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/७३

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मेवाड़ राज्य के अच्छे दिनों में राणा दीवानी के अधिकारियों, चार मंत्रियों और उनके सहायक मंत्रियों के साथ राज भवन में बैठकर परामर्श करता था और राज्य की वर्तमान समस्याओं को सुलझाने के लिए चेष्टा करता था। राज्य के सामन्त और सरदार इन वैधानिक कार्यों से कोई सम्बंध न रखते थे। जिन दिनों में राज्य की दशा विगड़ रही थी, शासन की व्यवस्था खराव हो रही थी सर्वत्र अशांति फैल रही थी, राज्य की शक्तियाँ दुर्बल हो गई थी, उन दिनों में राज्य का वैधानिक कार्य बहुत निर्बल हो गया था। यद्यपि उन दिनों में राणा की अवस्था अच्छी न रही थी और आक्रमणकारियों के अत्याचारों से राज्य बहुत पीड़ित हो रहा था, फिर भी राज्य की पंचायतें अपना कार्य नियमित रूप से कर रही थीं। अशांति के इन दिनों में भी राज्य का प्रत्येक विभाग अपना कार्य कर रहा था। सीमा पर जो छावनी बनी हुई थी, उनमें अधिकारी बैठकर अपना काम करते थे और सीमा की रक्षा के लिए वे सदा सावधान रहते थे। राज्य में कर वसूल करने का कार्य सावधानी के साथ चल रहा था। कहीं पर राज्य की तरफ से कोई उत्पात न हो, सबल निर्बलों को सता न सके, नीच और उदंड अनुचित कार्य न कर सकें, इन सभी बातों के प्रति राज्य के अधिकारी सदा सतर्क रहते थे। राज्य के बहुत से कार्य प्रजा के प्रतिनिधियों के द्वारा हुआ करते थे। प्रत्येक नगर और ग्राम से प्रजा अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजा करती थी और वे लोग एकत्रित होकर राज्य की समस्याओं का बहुमत से निर्णय किया करते थे। राजस्थान के सभी बड़े-बड़े नगरों मे निर्णायक समितियाँ बनी हुई थीं। उन समितियों का जो प्रधान चुना जाता था, वह नगर सेठ कहलाता था। इस पद के लिए नगर और ग्राम के श्रेष्ठ पुरुषों का चुनाव होता था। प्रजा के प्रतिनिधियों के साथ नगर सेठ बैठकर राज्य की समस्याओं का निर्णय किया करता था। सामन्त शासन-प्रणाली (जागीरदारी प्रथा) के दिनों में फ्रांस में भी यही होता था। वहाँ पर भी प्रजा के प्रतिनिधि एकत्रित होकर अपना प्रधान चुनते थे और वह प्रधान प्रतिनिधियों की सहायता से राज्य के कार्यों की व्यवस्था करता था। इस प्रकार की संस्थाओं के द्वारा राज्य के कार्यों का संचालन होता था। उनके बनाये हुये नियमों के आधार पर राज्य के बड़े-बड़े ग्रामों में पंचायतें काम करती थीं और उनके कार्यकर्ताओं का भी चुनाव हुआ करता था। प्राचीनकाल में राज्य की संस्थायें अपना कार्य करने के लिए चबूतरों पर बैठकें करती थीं। इस प्रकार के कार्यों के लिये जो चबूतरे चुने जाते थे, वे खालसा भूमि की सीमा के भीतर होते थे, जिन पर राणा का अधिकार होता था । किसी सामन्त के अधिकृत क्षेत्र में इस प्रकार के स्थान नहीं चुने जाते थे। सामन्त (जागीरदार) लोग अपने अधिकार की भूमि का स्वतंत्र रूप से उपभोग करते थे। उसमें राजा का हस्तक्षेप वे पसंद नहीं करते थे। वे स्वयं राजा की अधीनता में रहते थे। फिर भी अपने अधिकार के क्षेत्र को वे स्वतंत्र मानते थे। रोजाना - सामन्तों में किसी के अपराधी होने पर, राणा की आज्ञा का अनादर करने पर, राणा के द्वारा बुलाये जाने पर देर से उपस्थित होने पर अथवा इस प्रकार के किसी कार्य के करने पर राणा का दूत अपने साथ कुछ अश्वारोही अथवा पैदल सेना लेकर उस सामन्त के पास जाता है और राणा का आवे पत्र उसकी मोहर साथ सामन्त को दिखाकर दूत उससे रसद माँगता है। इसी रसद को रोजाना कहते हैं। अपराधी सामन्त जब तक राणा की आज्ञा का पालन न करे, उस समय तक राणा का दूत अपनी सेना के साथ सामन्त के यहाँ रहने का अधिकारी है और उसके लिए उस सामन्त 73