पृष्ठ:राजस्थान का इतिहास भाग 1.djvu/७४

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. को रसद देनी पड़ती है। राजभवन पहुंचने में सामन्त प्रायः देर कर देते हैं। उस दशा में उनके विरुद्ध राणा को यही करना पड़ता है। परन्तु इसके परिणाम कभी-कभी बहुत भयानक हो जाते हैं। सामन्तों के क्षेत्रों में राणा को अथवा राज्य के किसी विभाग के अधिकारियों को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। सामन्त अपने-अपने क्षेत्रों की व्यवस्था स्वयं करते हैं। सामन्तों के क्षेत्रों में भी पंचायतों की प्रथा काम करती है। देवगढ़ के सामन्त ने अपने अधीन सरदारों के सामने एक बार प्रतिज्ञा की थी-"आप सब के परामर्श के बिना हम किसी प्रकार के कार्य का अनुष्ठान न करेंगे।" राज्य में किसी प्रकार की अशांति पैदा होने पर अथवा किसी बाहरी शक्ति के आक्रमण करने पर अथवा आक्रमण की संभावना होने पर मेवाड़ के सभी सामन्त राणा की सभा में आकर एकत्रित होते हैं। राणा उनके साथ परामर्श करता है। उस समय इस बात का निर्णय किया जाता है कि ऐसे समय पर क्या होना चाहिये। सामन्तों के परामर्श के विना उनके निर्णय के विरुद्ध राणा को ऐसे अवसरों पर कुछ भी करने का अधिकार नहीं है। मेवाड़ राज्य पर जब कोई राजनीतिक विपदा आती है, तो राणा के पास पहुँचने के पहले ही सामन्त लोग आपस में परामर्श कर लेते हैं कि उनको राणा की सभा में जाकर क्या निर्णय करना चाहिए। अधिकांश अवसरों पर सामन्त यही करते हैं और उसके बाद राणा की सभा में जाते हैं। ऐसे अवसरों पर यदि राणा की तरफ से किसी (जागीरदार) सामन्त को निमंत्रण नहीं मिलता अथवा वह बुलाया नहीं जाता, तो वह सामन्त अपना अपमान अनुभव करता है। राणा अपने राज्य में शासन की जिस व्यवस्था को काम में लाता है, सामन्त लोग भी उसी प्रथा का अनुसरण करके अपने क्षेत्रों में राज्य का प्रबंध करते हैं। प्रत्येक सामन्त की अधीनता में कुछ सरदार रहते हैं, उसके कुछ प्रमुख कर्मचारी होते हैं। ये सरदार और प्रमुख कर्मचारी अपने सामन्त के दरवारी होते हैं। उसके दरबार में पंडित, कवि और प्रजा की तरफ से कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति रहा करते हैं। ये सभी लोग अनेक अवसरों पर सामन्त को अपना परामर्श देते हैं। जिस प्रकार राणा अपने मंत्रियों और सदस्यों के साथ बैठकर किसी समस्या का निर्णय करता है, ठीक उसी प्रकार सामन्तों को भी अपने-अपने क्षेत्र में करना पड़ता । इस प्रकार के परामर्शों में राणा के विचारों को प्रायः महत्त्व दिया जाता है और राज्य की समस्याओं को राणा के दरबार में एकत्रित होकर सभी सामन्त सुलझाते। सैनिक कार्य - सुख और संतोष के दिनों में मेवाड़ में पंद्रह हजार अश्वारोही सेना राज्य के प्रत्येक भाग से आकर एकत्रित होती और युद्ध भूमि में राणा के साथ जाती थी। इन सैनिकों को राज्य की तरफ से केवल भूमि दी जाती थी। जिसके बदले उनको राज्य की यह सेवा करनी पड़ती थी। सैनिकों की इस संख्या में प्रत्येक सामन्त अपने सरदारों के साथ उस सेना को लेकर जो उसके अधिकार में रहती थी, राणा के पास उपस्थित होता था। सामन्तों को भूमि अथवा इलाका जो दिया जाता था, वह सब के लिए एक-सा नहीं था और वे लोग अपने अधिकार में जो सेनायें रखते थे, वे भी एक-सी न थीं। उनके सैनिकों की संख्या अलग-अलग थी। जिस सामन्त की आय जैसी होती थी, उसी हिसाब से वह अपने अधिकार में सेना रख सकता था। एक हजार रुपये की वार्षिक आय पर कम से कम दो और आमतौर से तीन सैनिक सवारों को रखने का नियम था। कभी-कभी भूमि दी जाने के समय आय के प्रत्येक एक हजार रुपये पर किसी-किसी को तीन अश्वारोही और 74