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राजा और प्रजा।
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साथ कार्यक्षेत्रमें कूद पड़नेके लिये भी हमारा लाञ्छित हृदय विह्वल हो उठता है । मनःक्षोभकी इस आत्यन्तिक अवस्थामें ही हम इतिहासका यथार्थ तात्पर्य समझनेमें भूल कर जाते हैं। हम निश्चय कर लेते हैं कि जिस जिस पराधीन देशको की स्वाधीनता मिली है, वह विप्लवहीकी कृपासे मिली है। स्वाधीन होने और बने रहनेके लिये और भी किसी गुणकी आवश्यकता है या नहीं, इसको हम स्पष्ट रूपसे समझना ही नहीं चाहते; अथवा विश्वास कर लेते हैं कि सारे गुण हमने सम्पा- दित कर लिए हैं और हममें विद्यमान हैं, या यही मान लेते हैं कि समय आनेपर वे गुण अपने आप ही किसी न किसी रीतिसे हममें आ जायेंगे।

इस प्रकार मानवचित्त जिस समय अपमानको चोट खाकर अपना बड़प्पन साबित करनेके लिये छटपटाने लगता है, जिस समय पाग- लकी तरह सारी कठिन बाधाओंका अस्तित्व एक वारगी अस्वीकार करके असाध्य चेष्टा करते हुए आत्महत्याका उपाय करता है, उस समय संसारमें उससे बढ़कर शोचनीय दशा और किसकी हो सकती है ? ऐसी दुश्चेष्टा विफलताकी उस खाड़ीमें फेंक देती है जिससे कभी निक- लना ही नहीं होता। तथापि हम इसका परिहास नहीं कर सकते । इस चेष्टाके अन्दर मानव प्रकृतिका जो परम दुःखकर अध्यवसाय है, वह सभी स्थानों और सभी समयोंमें नाना निमित्तोंसे, नाना असम्भव आशाओंमें, नाना असाध्य साधनोंमें बारम्बार पंख जले हुए पतंगकी तरह निश्चित पराभवकी अग्निशिखामें अन्धभावसे कूदा करता है।

जो हो, और चाहे जैसे हो, यह नहीं कहा जा सकता कि आघात पाकर शक्तिके अभिमानका जाग्रत होना राष्ट्रका अहित करना है। इसीसे तो हममें से कोई कोई यह मानकर कि विरोधके क्रुद्ध आवेगसे ही