विरोधी वायुके प्रबलतम झोंकोंकी परवा न कर जो जहाज लंगर खुलने पर समुद्रके पानीको चीरता हुआ चल देता है, निश्चयपूर्वक जानना होगा कि उसके पेंदेके तख्तोंमें कोई दराज नहीं था; अथवा यदि रहा भी हो तो जहाजके मिस्त्रीने किसीको न जनाते हुए चुपचाप उसकी मरम्मत कर डाली है । पर जिस जीर्ण जहाजके तख्ते इतने ढीले हो गए हों कि जरासा हिला देनेहीसे एक दूसरेसे टक्करें लेने लगते हों, क्या उपर्युक्त तूफानी झोंके उसकी पालका सर्वनाश न कर डालेंगे ? हमारे देशमें भी तनिकसी गति दे देनेसे हिन्दूसे मुसलमान, उच्च वर्णसे निम्न वर्णकी टक्करबाजी होने लगती है या नहीं ? जब भीतर इतने छिद्र मौजूद हैं तब तूफानके समय, लहरें चीरकर, स्वरा- ज्यके बन्दरगाह तक पहुँचने के लिये उत्तेजनाको उन्मादमें बदल लेना ही क्या उत्कृष्ट उपाय है ?
जिस समय बाहरसे देशका अपमान किया जाता है, जिस समय अपने अधिकारों की सीमा तनिक विस्तीर्ण करानेकी इच्छा करते ही शासकवर्ग हमें 'नालायक' की उपाधि देने लगता है, उस समय अपने देशमें किसी प्रकारकी दुर्बलता, किसी प्रकारकी त्रुटि स्वीकार करना हमारे लिये अत्यन्त कठिन हो जाता है। उस समय हम दूस- रोंसे अपना बचाव करनेके लिये ही अपना बड़प्पन नहीं गाते फिरते, अभिमानके आहत होनेसे अपनी अवस्थाके सम्बन्धमें हमारी बुद्धि भी अन्धी हो जाती है और हम तिरस्कार योग्य नहीं हैं, इसे निमेष मात्रमें सिद्ध कर दिखाने के लिये हम अत्यन्त व्यग्र हो उठते हैं । हम सब कुछ कर सकते हैं, हमारा सभी कुछ मौजूद है, केवल बाहरी रुकावटने हमें अयोग्य और असमर्थ बना रखा है-इस बातको गला फाड़ फाड़कर चिल्लानेहीसे हमें सन्तोष नहीं होता; इसी विश्वासके