कोई बात कहकर कोई आसान से छुट्टी नहीं पा सकता, निस्सन्देह
यह समयका एक शुभ लक्षण है।
तथापि शास्त्रार्थका जोश हममें कितना ही अधिक क्यों न हो, जबतक हम यह माननेका कोई सबल कारण न देख लें कि हमसे विरुद्ध मत रखनेवाला देशके हितसाधनकी आन्तरिक निष्ठासे हीन है तब तक एक दूसरेके विचार तथा इच्छाका स्पष्ट ज्ञान हो जाना आवश्यक है । आरम्भहीसे क्रोध अथवा विरुद्ध पक्षके प्रति सन्दे- हको मनमें स्थान देकर हम अपनी ही बुद्धिको धोखा देंगे। बुद्धिका तारतम्य या कर्माबेशी ही मतभिन्नताका कारण होती है, यह बात सब जगह ठीक नहीं उतरती । अधिकांश स्थानों में प्रकृति-भेद ही मत-भेदका कारण होता है । अतएव यह कथन कदापि सत्य नहीं हो सकता कि विरुद्ध पक्षके मतका सम्मान करना अपनी निजकी बुद्धिका असम्मान करना है।
इतनी भूमिकाके बाद हम ‘पथ और पाथेय’ की अधूरी आलो- चनाकी और पुनः अग्रसर होते हैं।
संसारमें हमको कभी सत्यसे सन्धि करके और कभी लड़ाई करके चलना पड़ता है । अन्धता वा चतुराई के बलपर सत्यको उल्लंघन करके हम कोई छोटेसे छोटा काम भी नहीं कर सकते ।
अतएव देशहितके संकल्पके सम्बन्धमें जब हम वाद-विवाद करते हैं तब उसमें एक प्रधान प्रश्न यह होता है कि कितने ही महान् और कितने ही श्रेष्ठ होनेके साथ साथ क्या इस संकल्पका सत्यके साथ सामजस्य भी है ? चेकबहीपर किसीके बड़े बड़े अङ्क लिख देनेसे प्रसन्न हो जाना ठीक नहीं । किसका चेक बैंक स्वीकार करेगा, यही देखनेकी असल बात है।