पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
समस्या।
१७५


कोई बात कहकर कोई आसान से छुट्टी नहीं पा सकता, निस्सन्देह यह समयका एक शुभ लक्षण है।

तथापि शास्त्रार्थका जोश हममें कितना ही अधिक क्यों न हो, जबतक हम यह माननेका कोई सबल कारण न देख लें कि हमसे विरुद्ध मत रखनेवाला देशके हितसाधनकी आन्तरिक निष्ठासे हीन है तब तक एक दूसरेके विचार तथा इच्छाका स्पष्ट ज्ञान हो जाना आवश्यक है । आरम्भहीसे क्रोध अथवा विरुद्ध पक्षके प्रति सन्दे- हको मनमें स्थान देकर हम अपनी ही बुद्धिको धोखा देंगे। बुद्धिका तारतम्य या कर्माबेशी ही मतभिन्नताका कारण होती है, यह बात सब जगह ठीक नहीं उतरती । अधिकांश स्थानों में प्रकृति-भेद ही मत-भेदका कारण होता है । अतएव यह कथन कदापि सत्य नहीं हो सकता कि विरुद्ध पक्षके मतका सम्मान करना अपनी निजकी बुद्धिका असम्मान करना है।

इतनी भूमिकाके बाद हम ‘पथ और पाथेय’ की अधूरी आलो- चनाकी और पुनः अग्रसर होते हैं।

संसारमें हमको कभी सत्यसे सन्धि करके और कभी लड़ाई करके चलना पड़ता है । अन्धता वा चतुराई के बलपर सत्यको उल्लंघन करके हम कोई छोटेसे छोटा काम भी नहीं कर सकते ।

अतएव देशहितके संकल्पके सम्बन्धमें जब हम वाद-विवाद करते हैं तब उसमें एक प्रधान प्रश्न यह होता है कि कितने ही महान् और कितने ही श्रेष्ठ होनेके साथ साथ क्या इस संकल्पका सत्यके साथ सामजस्य भी है ? चेकबहीपर किसीके बड़े बड़े अङ्क लिख देनेसे प्रसन्न हो जाना ठीक नहीं । किसका चेक बैंक स्वीकार करेगा, यही देखनेकी असल बात है।