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पृष्ठ:राजा और प्रजा.pdf/३१

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राजा और प्रजा।
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और भारतवर्षकी असीम मरुभूमि है । वह मरुभूमि अप्रसिद्ध, नूतन- तारहित और बहुत विशाल है । उसमें केवल काले आदमी पड़िया कुत्ते, पठान, हरे रंगके तोते, चील, मगर और घासके लम्बे चौड़े निर्जन क्षेत्र हैं । इस मरु-समुद्रके बीचबाले टापुओंमें थोड़ेसे युवा पुरुष विधवा महाराणीका काम करने और उनके अधीनस्थ पूर्व- देशीय धनसम्पत्तिपूर्ण जंगली साम्राज्यकी रक्षा करनेके लिय सुदूर इंग्लैण्डसे भेजे हुए आए और बैठे हैं।" अंगरेज द्वारा खींचा हुआ भारतवर्षका यह शुष्क और शोभाहीन चित्र देखकर मन निराशा और विषादसे भर जाता है। हम लोगोंका भारतवर्ष तो ऐसा नहीं है, लेकिन क्या अँगरेजोंके भारतवर्ष और हम लोगोंके भारतवर्ष में इतना अन्तर है?

परन्तु आजकल ऐसे प्रबन्ध प्रायः देखे जाते हैं जिनमें भारतवर्ष के साथ स्वार्थ-सम्पर्ककी बातें होती हैं। इंग्लैण्डकी जनसंख्याके प्रति- वर्ष बढ़नेके कारण वहाँ खाने-पीनेकी चीजोंका अभाव क्रमशः कितना बढ़ता जाता है और भारतवर्ष उस अभावको कहाँतक पूर्ति करता है और विलायती माल मँगाकर बहुतसे विलायती मजदूरोंको काम देकर किस प्रकार उनकी जीविकाका प्रबन्ध करता चलता है, इसकी सूचियाँ खूब निकलती हैं।

अँगरेज लोग दिनपर दिन यही समझते जाते हैं कि भारतवासी हम लोगोंकी राजकीय पशुशालामें सदासे पले हुए पशु हैं। वे लोग गौशालाको साफ रखते और घास-भूसेका प्रबन्ध करनेमें कभी आलस्य नहीं करते। इस अस्थावर सम्पत्तिकी रक्षाके लिये उनका प्रयत्न सदा होता रहता है । ये पशु कभी कोई बदमाशो न कर बैठे इस विचारसे वे उनके सींग घिस देनेसे भी उदासीन नहीं रहते और सवेरे सन्ध्या