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अँगरेज और भारतवासी।
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दूध दुहनेके समय वे दुबले पतले बछड़ोंको भी एकदमसे वंचित नहीं करते । लेकिन फिर भी दिनपर दिन स्वार्थका सम्पर्क ही बराबर बढ़ता जा रहा है। इन सब प्रबन्धोंमें प्रायः एक ही समय भारतवर्षके साथ साथ अँगरेजी उपनिवेशोंके सम्बंधकी बातें भी दे दी जाती हैं। लेकिन दोनोंके सुरोंमें कितना भेद होता है । उपनिवेशोंके प्रति कितना प्रेम और कितना उत्तम भ्रातृभाव दिखलाया जाता है। उनके सम्ब- न्धमें तो किस प्रकार बार बार कहा जाता है कि यद्यपि वे लोग मातृ- भूमिसे अलग हो गए हैं तथापि माताके प्रति अबतक उनमें अचला भक्ति है-वे लोग रक्तसंबंधको भूल नहीं सके हैं । अर्थात् जब उनका जिक्र होता है तब स्वार्थके साथ साथ प्रेमपूर्ण बातोंका उल्लेख करना भी आवश्यक होता है। परन्तु इस बातका कहीं कोई आभास मात्र भी नहीं रहता कि हतभाग्य भारतवर्षका भी कहीं कोई हृदय है और उस हृदयके साथ कहीं न कहींसे थोड़ासा सम्बन्ध रहना आवश्यक है। हाँ केवल हिसाब किताबके समय श्रेणीबद्ध अंकोंके द्वारा भारत- वर्ष निर्दिष्ट होता है । इंग्लैण्डके प्रैक्टिकल लोगोंके सामने भारतवर्षका गौरव केवल मनके हिसाबसे, सेरके हिसाबसे, रुपएके हिसाबसे और शिकारके हिसाबसे है। समाचारपत्रों और मासिकपत्रोंके लेखक लोग क्या इंग्लैण्डको केवल इसी शुष्क पाठका अभ्यास करावेंगे ? भारत- वर्षके साथ यदि उनका केवल स्वार्थसम्बन्ध ही दृढ़ हो तो जो श्यामां- गिनी गऊ आज दूध दे रही है सम्भव कि गोपकुलकी बेहिसाब वंशवृद्धि और क्षुधावृद्धिके कारण कल ही उसकी पूँछ खुर तक और घिसकर गायब हो जायें। केवल स्वार्थका ही ध्यान रखा जाता है इसीलिये लंकाशायरने तो निरुपाय भारतवर्षके सूतपर महसूल लगा दिया है और अपना माल वह बिना महसूलके ही चलान कर रहा है।