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राजा और प्रजा।
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हम जानते हैं कि यदि हम अन्यायके विरुद्ध खड़े होना चाहें तो हमें सबसे अधिक डर अपनी जातिका ही होगा। जिसके लिये हम अपने प्राण देनेको तैयार होंगे वही हमारी विपत्तिका प्रधान कारण होगा। हम लोग जिसकी सहायता करने जायँगे वहीं हमारी सहायता न करेगा। कायर लोग सत्य बातको स्वीकार न करेंगे। जो पीड़ित होंगे वे अपने कष्टको छिपा रखेंगे। कानून अपना वज्रके समान मुक्का उठावेगा और जेलखाना अपना लोहेका मुँह फैलाकर हम लोगोंको निगलने आवेगा। लेकिन फिर भी सच्चे महत्त्व और स्वाभाविक न्यायप्रियताके कारण हम लोगों से दो चार आदमी भी जब अंत तक अटल रह सकेंगे तब हम लोगोंके जातीय बंधनका सूत्रपात हो जायगा और तब हम लोग न्याययुक्त विचार करानेके अधिकारी होंगे।

हिन्दुओं और मुसलमानोंके विरोध अथवा भारतवासियों और अँगरेजोंके संघर्षके विषयमें हम जो कुछ अनुमान और अनुभव करते हैं, हम नहीं कह सकते कि हमारा वह अनुमान और अनुभव ठीक है या नहीं। और न हम यही जानते हैं कि हम जिस अविचारकी आशंका करते हैं उसका कोई आधार है या नहीं, लेकिन इतना अवश्य जानते हैं कि यदि मनुष्य केवल विचारकके अनुग्रह और कर्त्तव्य-ज्ञानपर ही विचारका सारा भार छोड़ दे तो इतनेसे ही वह सुविचारका अधिकारी नहीं हो सकता। राजतंत्र चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो, परन्तु यदि उसकी प्रजाकी अवस्था बिलकुल ही गई बीती हो तो वह राजतंत्र कभी अपने आपको उस उच्चस्थानपर स्थित नहीं रख सकता। क्योंकि राज्य मनुष्यके हीद्वारा चलता है। न तो वह यंत्रोके द्वारा चलता है और न देवताओं के द्वारा। जब उन मनुष्योंके सामने हम इस बातका प्रमाण देगें कि हम भी आदमी हैं तब वे लोग