पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/११

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उधर छितराए पड़े हैं। निषादी, सादी, शूली, रथी, महारथी और पैदल भेदभाव और मर्यादा का विचार भूलकर एकसाथ भूमि पर लोट रहे हैं। जगह-जगह पर वर्म, चर्म, अस्थि, धनु, भिन्दिपाल, तूण, शर, मुद्गदर और परशु पड़े हुए हैं। मृत वीरों के महा तेजस्कर आभरण, मणि-जटित किरीट शीर्ष बिखरे पड़े हैं। हा! जैसे किसान सुनहरे धानों की बालियों को काटकर खेत में डाल देता है, वैसे ही इस बरी रघुवंशी ने राक्षसकुल को काट फेंका है।"

हाय पुत्र! तुम जिस शय्या पर आज जा सोये हो, उसकी आकांक्षा वीरजन सैदव करते हैं। अरे, समर में जो डरे वही मूढ़ है, फिर भी हे, वत्स! मोह-मद में मेरा मन मुग्ध होकर कातर हो गया है। अरे, विधाता! तू ही जगत का पिता है, मैं एक ही पुत्र के शोक से व्याकुल हो रहा हूँ। तुम्हारी क्या दशा होती होगी? हा, पुत्र! मैं तुम्हारे बिना कैसे अब जीऊंगा?"

"हे, शूर-मुकुटमणि इस अयन्त अद्भुत समुद्र-सेतु को तो देखिए। सागर के इस जल में शिलाएं ऐसी दृढ़ता से बंधी हैं कि क्रुद्ध सागर का प्रचंड तरंगाघात उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, वह तो राजपथ-सा प्रशस्त है।

"वाह रे, अभिमानी जलधिपति! क्या ही सुन्दर विजयमाल तूने अपने कण्ठ में डाली है। धिक्कार है तुझे! इसी बूते तू अलंध्य और अजेय कहाता था? अरे, वरुणपुत्र! कह, तू तो पवन से भी शत्रुता करते भय नहीं खाता था? फिर तूने किस भांति भिखारी राम से डरकर यह बेड़ियां पहन लीं? उठ और इस सेतु को बल से तोड़-फोड़कर प्रबल रिपु को अतुल जल में डुबोकर मेरे हृदय की ज्वाला को शान्त कर। तेरे ही बल पर स्वर्णलंका को इतना गर्व था।"

महाराज! आपका तेजबल जगत्-विख्यात है। देवता और दानव भी आपके नाम से कम्पित होते हैं। स्वामी! यह समय कातर होने का नहीं है शत्रु को विजय करने का है। अब भी लंका वीरशून्या नहीं हो गई। सरयूतीरवासी भिक्षूक राम भाग्यबल पर ही जीता है। सो स्वामी! पुरुष का भाग्य अजेय है।"

सत्य कहते हो मंत्रिवर! ठीक है, अच्छा, अब मैं स्वयं ही राक्षसकूल के मान की रक्षा करने जाऊंगा। अरे, लंका के शूरवीर योद्धाओ! जाओ और सजो! अब पृथ्वी राम या रावण से रहित होने वाली है।"