"कुमार! यही उनका आश्रम है। यहीं पर हमारे प्राणों से प्यारे राम, लक्ष्मण और सीता के साथ रहते हैं।"
"तब रोकिए रथ।"
"बहुत अच्छा।"
रथ रुकने पर भरत उतर पड़े और सुमन्त से कहा कि जाकर राम को सूचित करें।
"क्या कहूं कुमार!"
"कहिए कि राज्यलोलुप कैकेयी का पुत्र आया है।"
"कुमार! माता की निन्दा नहीं करनी चाहिए।"
"आप ठीक कहते हैं, तो आप कहिए कि कुलकलंक भरत आया है।"
"भला मैं ऐसा कह सकता हूं? मैं कहूंगा कुमार भरत आए हैं।"
"नहीं-नहीं, यह यथेष्ट नहीं है। क्या पापियों का बखान दूसरे किया करते हैं। आप ठहरिए, मैं स्वयं ही जाकर कहता हूं।"
उन्होंने राम कुटी के समीप पहुंचकर कहा, "अरे, कोई पिता की आज्ञा मानने वाले धर्मात्मा राम से कह दे कि आपका अयोग्य सेवक भरत आया है। ठहरे या जाए?"
भरत की ध्वनि आश्रम में गूंज गई। राम ने उसे सुना। उन्होंने प्रसन्न होकर लक्ष्मण से कहा, "सुनते हो लक्ष्मण! तुमने भी सुना सीता! यह किसका कण्ठस्वर है? सुनने से प्यार उमड़ने लगा। लक्ष्मण! तनिक बाहर देखो तो कौन है?"
लक्ष्मण ने बाहर आकर भरत और सुमन्त को देखा। सुमन्त ने भी उन्हें देख लिया। बोले, "कुमार लक्ष्मण हैं क्या?"
लक्ष्मण ने आगे बढ़कर प्रणाम करके कहा, "अभिवादन करता हूं! तनिक ठहरिए, आपके आने की सूचना मैं आर्य को दे आऊं।"
भरत ने कहा, "शीघ्र करो भ्राता! मुझसे विलम्ब नही सहा जाता।"
लक्ष्मण द्रुतगति से चल दिए और राम को भरत के आने की सूचना दी। राम ने सुनकर व्यग्रता से पूछा, "क्या कहा, भरत? देवी सीता! भरत को देखने के लिए आंखें बड़ी-बड़ी कर लो।"
सीता ने भी लक्ष्मण से पूछा, "क्या सचमुच भरत आए हैं?"
राम ही बोल पड़े, नहीं तो क्या? भाई का प्रेम कैसा होता है, यह मैं आज देखूंगा। जाओ, लक्ष्मण! भरत को भीतर ले आओ। नहीं, तुम ठहरो, देखते हो सीता की आंखों में आनन्द के आंसू सज रहे हैं, जैसे कमल के फूल में ओस की बूंदें। भरत पर उनका कितना प्यार है, वही क्यों न
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राज्याभिषेक—८