पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/२०

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अस्त्रों को बड़े यत्न से लंका ले जाओ। राम से कहना कि इन्हीं अस्त्रों से दुरन्त रिपु मेघनांद का वध होगा। किस प्रकार से वध करना होगा, यह मायादेवी स्वयं ही सौमित्र को कहेंगी। तुम उनसे यह भी कहना कि इन्द्रलोकवासी उनके मंगलाकांक्षी हैं और माहेश्वरी उमा उनपर प्रसन्न हैं। रावणि के मरने पर रावण अवश्य ही मारा जाएगा। राम को अभय प्रदान करना और कहना, वे अवश्य वैदेही को प्राप्त करेंगे।"

चित्ररथ बोला, "देवराज! इतने अल्प समय मैं कैसे लंका पहुंचूंगा! फिर दैत्य मुझे लंकापुरी में देखकर विवाद करें तो?"

"रथिवर! तुम मेरे रथ पर चढ़कर जाओ। यदि कदाचित् राक्षस तुम्हें लंकापुरी में देखकर विवाद करें, तो मैं मेघदल को गगनाच्छादित करने के लिए आज्ञा दूंगा और प्रभंजन को बुलाकर वायुकुल को मुक्त करवा दूंगा, चपला चमकने लगेगी और वज्र-गर्जन से गगन परिपूर्ण हो जाएगा।"

"जो आज्ञा!" कहकर चित्ररथ चल दिग। उसके जाने पर इन्द्र ने प्रभंजन को आज्ञा दी, "वायुपति! तुम लंकापुरी में इस समय प्रबल आंधी चलाओ। समस्त वायुदल को छोड़ दो और मेघदल को साथ लेकर अपने बैरी सिन्धु से क्षण-काल के लिए खूब द्वन्द्व करो।"

प्रभंजन भी 'जो आज्ञा' कहकर चल दिया।

लंका में एकाएक आंधी चलने लगी, बिजली कड़कने और मेघ गरजने लगे। प्रलय का-सा अन्धकार हो गया। समुद्र में तूफान उठने लगे। रात्रि के ऐसे भयंकर समय में चित्ररथ का ज्योतिर्मय रथ राम के सम्मुख उतरा। वानरयूथ आश्चर्यचकित उसे देखने लगे। रथी चौकन्ने होकर शस्त्र सम्भालने लगे। राम ने अनुरों सहित आगे बढ़कर चित्ररथ से पूछा, "हे, दिव्यरूप पूज्यवर! आप कौन हैं और दास आपकी क्या सेवा कर सकता है? बैठाने योग्य स्वर्णासन मेरे पास नहीं है, तथापि मुझ दास पर कृपा कर इस कुशासन पर बैठिए।"

चित्ररथ ने कुशासन पर बैठकर कहा, "दाशरथि! मेरा नाम चित्ररथ है। मैं गन्धर्वराज हूं और मैं देवेन्द्र की आज्ञा से आपके पास आया हूं। देवराज सब भांति आपका मंगल चाहते हैं। ये अस्ज्ञ लक्ष्मण के लिए देवराज ने भेजकर कहलाया है कि इन्हीं से अजेय रावणि मारा जाएगा। मायादेवी उषा के उदय-काल में प्रकट होकर स्वयं यह बताएंगी कि किस भांति वीर मेघनाद मारा जाएगा।"

"गन्धर्वराज! इस शुभ सम्वाद से मुझे अतिशय आनन्द हुआ है। हे, देव! मैं तुच्छ नर हूं, फिर कैसे अपनी कृतज्ञता प्रकट करूं?"

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