सूर्य के तेज के सहारे जीती थी, वह तो अस्ताचल को जा रहा है । यह सूर्यमुखी तो उषाकाल में फिर सूर्य को देख लेगा; पर क्या मैं भी कुछ आशा करूं?"
"अवश्य, तुम उषा के उदय होने पर अपने प्राणनाथ से उसी भांति मिलकर प्रसन्न होगी, जिस भांति चकवी चकवा से मिलकर तृप्त होती है।"
"अरी, यह कालरात्रि कैसे व्यतीत होगी? उषा का उदय क्या अभी होगा? तब तक तो मैं इस वियोगाग्नि में जलकर भस्म हो जाऊंगी। सखी मैं तो लंका में उनके पास अभी जाऊंगी।"
"आज तुम लंका में कैसे जाओगी? अलंध्य सागर के समान राम के वानर सैन्य ने लंकापुरी को घेर रखा है। साक्षात् यमराज के समान असंख्य दण्डधारी योद्धा चारों ओर चौकन्ने होकर फिर रहे हैं।"
सुलोचना ने क्रुद्ध-सी होकर कहा, "अरी, यह तू क्या बकती है? क्या तू यह नहीं जानती कि जब नदी अपना पर्वत-गृह छोड़कर समुद्र से मिलने को गमन करती है, तब किस की सामर्थ्य है, जो उसे रोके? मैं दानवनन्दिनी और राक्षसकुल वधू हूं। विश्वविख्यात राक्षसराज रावण मेरा श्वसुर और अजेय इन्द्रजीत मेरा पति है। क्या मैं भिखारी राम से डरती? मैं अपने भुजबल से लंका में प्रवेश करूंगी। देखूं, कौन' 'मुझे रोकता है। सखियो! सज्जित हो जाओ, दुन्दुभी बजा दो, तलवार म्यान से निकाल लो, धनुषों को टंकार लो, तरकशों को कालशरों से भर लो। गिरिशृग, कन्दरा, सागर और वन आज कम्पायमान होंगे। आज मैं बलपूर्वक शत्रु-शिविर को भेदकर लंका में प्रवेश करूंगी। लाओ, मेरे अस्त-कवच-अश्व।"
सखियां दौड़कर सुलोचना को समर-साज लाकर सजाने लगीं। शीश पर जड़ाऊ किरीट, उन्नत वक्ष पर लौहवर्म, कमर में रत्नजटित कमरबन्द, पीठ पर स्वर्णढाल, नीलम के कोश में सूक्ष्म तलवार, हाथ में भयानक शूल। इस वीर वेश में सजकर सुलोचना ने बिजली की भांति कड़ककर कहा, 'वीर दैत्यबालाओ! मैं यह प्रतिज्ञा करती हूं कि निज भुजबल से राघव के कटक को पराजित कर मैं नगर में प्रवेश करूंगी और वीरेन्द्र के पास जाऊंगी। हम दानवबालाएं हैं। शत्रु का वध करना अथवा शत्रुशोणित नद में डूब मरना दानवकुल का नियम है। हमारे अधर में मधु और लोचन में गरल है। चलो, तनिक राम का बल देखें। अरी, मैं क्षण-भर उस रूप को देखूंगी, जिरे कर शूर्पणखा पंचवटी में मोहित हो गई थी। मैं उस यति लक्ष्मण को देखूंगी, जिसने लंका को भयाकुल कर रखा है। मैं उस राक्षस-
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