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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/२८

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लक्ष्मण की बात सुनकर राम की भी नींद टूट गई। उन्होंने कहा, "भ्राता लक्ष्मण! अधीर क्यों हो रहे हो?"

लक्ष्मण ने उन्हें प्रणाम करके कहा, "महाराज! मैंने एक अद्भुत स्वप्न अभी देखा है। माता सुमित्रा ने मुझे आदेश दिया कि उठो, प्रभात हो रहा है। लंका के उत्तर कूल पर चण्डी का स्वर्णमन्दिर है। तुम वहां जाओ और सरोवर में स्नान कर देवी की विविध पुष्पों से पूजा कसे, तो उनके प्रसाद से तुम दुर्मद सेघनाद का वध कर सकोगे।"

यह सुन राम ने विभीषण को बुलाकर कहा, "मित्रवर! इस राक्षसपुरी में तुम्हीं मेरे परम रक्षक हो, कहो अब क्या कहते हो?"

विभीषण स्वप्न सुनकर कहने लगे, "देव! इस वन में जो सरोवरकूल पर चण्डी का मन्दिर है, उसमें राक्षसनाथ स्वयं सती की पूजा करता है। वह एक भयंकर स्थल है, इसलिए वहां कोई नहीं जाता। सुना है, वहां स्वयं त्रिशूली शिव द्वार पर पहरा देते हैं। जो कोई वहां मां की पूजा करता है, वह जयी होता है। यदि वीर सौमित्र उस वन में प्रवेश कर सकें, तो अवश्य मनोरथ में सफल हो सकते हैं।

लक्ष्मण बोल पड़े, "मैं अवश्य वहां जाऊंगा। कौन भेरी गति को रोक सकता है!"

राम ने कहा, "भ्राता! तुमने मेरे लिए बहुत कुछ सहन किया। अब मैं तुम्हें इस स्थल पर भेजते भय खाता हूं; परन्तु देव की यही इच्छा है, तो जाओ, सावधान रहना देवता तुम्हारी रक्षा करेंगे।"

लक्ष्मण ने तलवार नंगी कर राम के चरण छकर कहा, "आप किसी भांति की चिन्ता न करें। मैं अभी देवी का वरदान प्राप्त करके आता हूं।"

रात्रि ढल रही थी, शीतल मन्द समीर बह रही थी। चण्डी के उद्यान के सरोवर में स्वच्छ जल पर बडे-बड़े कमलपुष्प फल रहे थे। मन्दिर के द्वार पर त्रिशूली शिव की छाया दीख पड़ती थी। ललाट पर शशिकला, सिर पर जटा-जूट बीच में जाह्नवी की शुभ्ररेख, अंग में विभूति, दाहिने हाथ में विकराल त्रिशूल।

लक्ष्मण वहीं पहुंचकर त्रिशूली शिव को छाया के चरणों में गिरकर बोले, 'हे, चन्द्रचूड़! त्रिभुवन विख्यात रघुकुलमणि दशरथ का पुत्र यह दास लक्ष्मण आपके चरणों में प्रणाम करता है।"

छाया ने आशीर्वाद दिया, "हे सौभाग्यशाली! तुम्हारी जय हो।"

लक्ष्मण ने तलवार निकालकर कहा, "प्रभो! कृपया रास्ता छोड़ दीजिए। मैं कानन में प्रवेश करके चण्डी की पूजा करना चाहता हूँ अथवा मुझ दास से युद्ध कीजिए। देवाधिदेव! मैं विलम्ब नहीं कर सकता। मैं

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