पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/३३

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बिलकुल भूल गई थी। हमारे कुटी के बाहर सदैव वसन्त खिला रहता था। कोयल कुहू-कुहू करके प्रातःकाल मुझे जगाती थी । द्वार पर मोर-मोरनी नाचा करते थे। नित्य हाथी-हथिनी, मृगशिशु क्रीड़ा किया करते थे। इन सबमें मेरा मन रम गया था। मैं सब वनचरों की सेवा किया करती थी। पम्पा सरोवर के बड़े-बड़े पद्मों को मैं अपने केशों में लगाती थी तो प्रभु हंसकर मुझे वनदेवी कहकर पुकारते थे। हाय सखी! क्या अब फिर उनका मुखचन्द्र देखने को न मिलेगा?"

"देवी! यदि पूर्वकथा-स्मरण से दुःख होता है, तो मत कहो। तुम्हारे आंसू देवकर तो मेरे प्राण निकलते हैं।"

"अरी, यह अभागिन न रोयेगी तो कौन रोयेगा? ऋषि-पत्नियां कभी-कभी मेरी कुटी में आती थीं, तो ऐसा प्रतीत होता था, मानो अन्धकार में चन्द्रिका उदय हुई। प्रभु की मधुर वाणी संगीत की भांति कानों में भरी रहती है। हे, निष्ठुर विधि! क्या वह संगीत-सुधा एक बारगी ही विलुप्त हो गई?"

सती सीते! तुम्हारी बात सुन कर राजभोग से घृणा उत्पन्न होती है। देवी! यह राक्षस कैसे तुम्हें हर लाया, यह भी तो कहो?"

हमारे सुख के दिनों में निर्लज्जा शूर्पणखा ने विपत्ति ला उपस्थित की। अब उन बातों को कहने में लज्जा आती है। वह बाधिनी जब मुझे मारने दौड़ी, तब सौमित्र ने तिरस्कार कर उसे भगा दिया। इसपर वह राक्षसों को बुला लाई। भीषण युद्ध हुआ। मैं तो कुटी में अचेत हो गई थी। शत्रु को विजयकर जब प्रभु ने अपने स्पर्श से मुझे जगा हंसकर कहा, हेमांगी! तुम इस शय्या पर शोभित हो प्रिये! उठो। अरी, क्या वह मधुर ध्वनि मैं फिर सुन सकूँगी?"

"देवी! अब मत कहो, आपका इतना कष्ट नहीं देखा जाता।"

"नहीं, अब सुनो। मारीच का छलना तुमने सुना ही है। जब मैंने मूढ़तावश राघव को और बाद में लक्ष्मण को भी कटु वाक्य कहकर उस स्वर्ण मृग के पीछे भेज दिया, तो क्या देखती हूं कि अग्नि के समान तेजस्वी तपस्वी खड़े हैं। मैं क्या जानती थी कि यह फूल में कालकोट है। मैंने भूमि पर सिर रखकर उसे प्रणाम किया। उसने कहा, रघुकुलवधू! भिक्षा दो, मैं क्षुधार्थ अतिथि हूं। मैंने उसे आसन दे, राघव के आने तक बैठने को कहा; पर वह रुष्ट होकर जाने लगा। तब मैंने अधर्म के भय से कुटी के बाहर भिक्षा देने को ज्यों ही हाथ बढ़ाया कि उसने कालपाश की भांति मुझे पकड़कर उठा लिया और विद्युत-गति से ले भागा। मैं रक्षा करो, रक्षा करो। चिल्लाने लगी। उस समय समस्त वन क्षुब्ध हो उठा; पर

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