पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/३४

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वह निर्दयी राक्षस न पिघला। अरी, जो लोहा तेज आंच पर पिघलता है, उसे क्या वारिधारा गला सकती है? उस दुष्ट ने कभी रोष से गरजकर, कभी मृदुस्वर में जो मुझसे कहा, वह मैं क्या कहूं। मैं निरुपाय हो अपने आभरण उतारकर वन में फेंकने लगी।"

"हाय देवी! वज्र हृदय ने तुम्हें बड़ा दुःख दिया।"

"हाय! मेरा विलाप किसी ने न सुना। उसका कन करथ गिरिशृंग, नद, वन और नाना देशों को पार करके वायुवेग से बढ़ चला। एकाएक रथ रुका, मैंने देखा, सामने पर्वत पर प्रलयकाल के मेघ के समान कोई भैरव मूर्ति खड़ी ललकार रही थी कि अरे दुर्मति चोर, मैं तुझे पहचानता हूं, तू किस कुलवधू को चुराए लिए जा रहा है ? सखि! क्षण-भर में ही दोनों वीरों में भयानक युद्ध हुआ। मैंने भागने का भी प्रयत्न किया; पर मैं मूच्छित हो गई। मूर्छा भंग होने पर देखा, वह वीर मुमूर्षु अवरथा में धरती पर पड़ा है, और राक्षस दर्प, गरज रहा है। वीर ने मरते-मरते कहा, अरे लोभी, शृगाल! तूने सिंहिनी पर आत्रमण किया है। देख, तू कैसे बचता है। इतना कहकर वह मौन हो गया। मैंने हाथ जोड़ कर कहा, हे देव! इस दासी का नाम सीता है, मैं जनक-दृहिता और रघुकुलवधू हूं। राघव से यदि साक्षात् हो तो उनसे कहना कि पापी रावण छल से मुझे हरण कर ले गया है। इसके बाद ही इस निर्दयी ने उठाकर मुझे रथ में डाल लिया।"

"जैसे व्याघ्र हरिणी को जाल में फांस लेता है।"

"हां, उसी प्रकार। रथ आकाश में वायुदेग से बढ़ चला। सामने नील सागर दीख पड़ा, मैंने गिरना चाहा, परन्तु दुष्ट ने गिरने भी न दिया। कनक-लंका मुझे प्रथम बार ऐसी प्रतीत हुई, जैसे सागर के भाल पर रक्त-चन्दन की रेखा सुशोभित हो। सखी! इस स्वर्णपिंजर में मुझ निरीह बन्दिनी को उसने बन्द कर दिया। सो, मैं राजकुल नन्दिनी और राजवधू होकर कारागार में बद्ध हूं।"

"देवी! धीरज धरो। अच्छे दिन आने वाले हैं। वीरयोनि लंका में सुभट नहीं रहे। त्रिभुवन-विजयी योद्धाओं की लाश सागर तट पर गिद्ध और शृगाल खा रहे हैं। लंका में घर-घर विधवाएं विलाप कर रही हैं। तुम्हें बड़ा क्लेश मिला है; परन्तु अब उसका अन्त होगा। देवी इस दासी को मत भूलना।"

"मेरी परम हितैषिणी सखी! तुम्हारे वचन सत्य हों। सीता कंगालिनी है और तुम रत्न हो, क्या कंगालिनी रत्न पाकर उसकी उपेक्षा करेगी?"

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