मेघनाद की आंखों से अश्रुधारा और शरीर से रक्तधाराबह निकली। कुछ क्षण बाद ही उसके प्राण निकल गए। मेघनाद को प्राणहीन देख विभीषण शूल फेंककर रोता हुआ उससे लिपट गया, "हाय, पुत्र! हाय राक्षसराज रावण के आशास्तम्भ! हाय मन्दोदी के नयन-तारे! हाय सती सुलोचना के प्राण! उठो, वत्स! उठो, मैं कुलांगार विभीषण तुम्हारा पितृव्य हूं, मैं अभी द्वार खोल दूंगा, तुम शस्त्र लेकर लंका के कलंक को दूर करो। अरे, यह लंका का सूर्य तो मध्याह्न में ही अस्त हो गया। अरे, वीर! तुम भूतल में क्यों पड़े हो? देखो, सेना-जयोल्लास कर रही है। शृंगीनादी नाद कर रहे हैं, घोड़े भैरव रव से हिनहिना रहे हैं। विलम्ब मत करो, उठो वीर! उठो।"
लक्ष्मण ने उन्हें समझाते हुए कहा, "हे, राक्षसराज! दुःख का दमन कीजिए। वृथा शोक से क्या लाभ है? यह तो देवाज्ञा का पालन हुआ है। चलिए, अब शीघ्र प्रभु राम की सेवा में चलें। सुनिए, देवलोक में मंगलवाद्य बज रहे हैं।" वे विभीषण का हाथ पकड़ वहां से चल पड़े।
उधर लंका के रंगमहल में प्रातः होते ही सुलोचना स्नान-पूजा कर अलंकार धारण करने लगी। दासी अलंकार पहनाने लगी।
अलंकार धारण करते-करते सुलोचना कहने लगी, "अरी, ये मणिमय भुजबन्ध पहनने से मेरा हाथ क्यों दुखने लगा? कण्ठ की यह माला कण्ठ का अवरोध करने लगी। अरी, सखी वासन्ती! ये अलंकार तो आप-ही-आप खिसक पड़ते हैं। मेरी दाहिनी आंख पड़क उठी, रोने की इच्छा होती है। स्वामी यज्ञागार में वैश्वानर की पूजा कर रहे हैं। तू अभी वहां जा और उनसे मुझ दासी का निवेदन कह कि आज अशुभ दिन में युद्ध न करें। मेरा मन तो जैसे डूबा जा रहा है।"
दासी बोली, "देवी! तनिक ध्यान से सुनो, यह अर्तनाद कैसा है, कौन रो रहा है? सेना का हुंकार बन्द हो गया दुन्दुभि नहीं बज रही है। शृंगीनाद भी नहीं सुनाई पड़ रहा है।"
सुलोचना ने भी आर्त्तनाद सुना, "अरे, यह हाहाकार और रुदनध्वनि तो बढ़ती ही जा रही है। आज यह लंका पर कौन-सी घोर विपदा आने वाली है? पुरवासी क्यों रो रहे हैं? चलो, देवमन्दिर में चलें।" वह उसी भांति अर्द्धवस्त्रालंकार पहने सखियों सहित उठकर चल दी।
नौ
कैलासधाम में शिव गूढ़ चिता में निमग्न थे। अम्बिका भी निकट बैठी
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