थीं। नन्दी और अनुचर अपने-अपने स्थान पर थे।
शिव ने विषाद-भरे स्वर में कहा, "देवी! लो तुम्हारा मनोरथ पूर्ण हुआ। रथीपति इन्द्रजीत मार डाला गया। यह देखो, वह यज्ञागार में मरा पड़ा है। सेनाएं अस्त्र फेंक रही हैं, नगर में हाहाकार मच रहा है। सती सुलोचना का भयानक क्रन्दन तो सुनो। कहो, अब तो तुम सन्तुष्ट हुई?"
अम्बिका बोली, "प्रभो! भक्तों की तो हमें रक्षा करनी ही पड़ती है।"
"रावण मेरा परम भक्त है! उसके दुःख से मैं भी दु:खी हूं। उसके ऊपर यह पुत्रशोक का आघात मेरे इस त्रिशूल के आघात से भी दारुण है। कहो, रावण पुत्र की मृत्यु का संवाद सुनकर क्या कहेगा? भय के मारे कोई उससे यह संवाद नहीं कहता। यदि मैं उसकी रक्षा आज रुद्रतेज से नहीं करूंगा तो वह संवाद सुनते ही मर जाएगा। त्रिये! मैंने तुम्हारे कहने से इन्द्र को सन्तुष्ट किया, अब यदि अनुमति हो, तो मैं दशानन को भी सन्तुष्ट करूं?"
"देव! जो इच्छा हो, सो करो। केवल यह याद रहे कि राम इस दासी का भक्त है।"
शिव ने हंसकर वीरभद्र से कहा, "वत्स! तुम लंका जाओ। मेघनाद किस कौशल से मारा गया है, यह कोई नहीं जान सका और भय के मारे रावण से कोई उसका मृत्यु-समाचार भी नहीं कहता, इसलिए तुम राक्षस दूत के वेश में जाकर रावण से यह सन्देश कह दो, और रुद्रतेज से रावण को भर दो।"
वीरभद्र 'जो आज्ञा' कहकर वायुवेग से चल दिया।
उधर अपने सभाभवन में मन्त्री-सभासद सहित रावण स्वर्णासन पर गम्भीर भाव से बैग हुआ कुछ सोच रहा था। कुछ देर बाद उसने कहा, "आज मेरा कलेजा ठण्डा होगा। क्या वीर पुत्र पूजा कर चुका? क्या सैन्य दल युद्ध को प्रस्थान कर गया? जयनाद नहीं सुनाई देता? हाथी नहीं चिंघाड़ रहे। घोड़ों का भी भैरव रव नहीं सुन पड़ रहा है। वाम अंग फड़क रहे हैं। हृदय में वेदना हो रही है। मन्त्री! क्या सेना प्रस्थान कर गई?"
मन्त्री ने उत्तर दिया, "पृथ्वीनाथ! शृगीनाद तो नहीं सुनाई दे रहा; किन्तु यह कोलाहल कैसा है?"
रावण ने कहा, "यह सेना का जयनाद नहीं है। देखो तो, यह कोलाहल तो बढ़ता ही जा रहा है।"
इसी समय वीरभद्र राक्षसदूत के रूप में आकर हाथ जोड़कर आंसू बहाने लगा। रावण ने पूछा, "अरे, दूत! क्या सन्देश है? कह, क्या
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