अपने-अपने दलों को व्यूहबद्ध कर रहे थे। इसी समय विभीषण और लक्ष्मण रक्त में लथपथ वहां आए। समस्त सेना वज्रगर्जन से जय-जयकार करने लगी। राम उत्सुकता से खड़े होकर बोले, "अरे, सौमित्र आ गए? यह देखो, उनके शरीर से रक्त झर-झर रहा है। राक्षसराज विभीषण का भीम शूल भी टूटा हुआ है। मालूम होता है, वीरवर कठिन युद्ध करके आ रहे हैं।"
लक्ष्मण दौड़कर राम के चरणों में गिर पड़े, "रघुकुलमणि! इन चरणों के प्रताप से यह दास रण में जयी हुआ। अजेय मेघनाद आज मारा गया। देवगण निर्भय हुए। वायु और अग्निदेव स्वाधीन हो गए।"
राम ने लक्ष्मण को छाती से लगाकर आंसू बहाते हुए कहा, "धन्य वीर, धन्य! अब मैं अवश्य सीता को प्राप्त कर सकूँगा। तुम्हारी जननी सुमित्रा धन्य है! जन्मभूमि अयोध्या धन्य है और तुम्हारा यह ज्येष्ठ भ्राता भी धन्य है! तुम्हारा यह यश जगत् में अमर रहेगा।"
फिर विभीषण को भी आलिंगन करके वोले, "अरे, सखा! इस शत्रुपुरी में शुभ घड़ी में मैंने तुम्हें पाया था. आज तुमने राघव कुल को मोल ले लिया। अब चलो मित्र! शुभंकरी शंकरी की पूजा करें।"
समस्त वानर सैन्य ने फिर जयनाद किया। सहसा लंका सिंहनाद से हिल उठी, भूकम्प-सा आ गया। राम ने विभीषण से पूछा, "सखे! क्या प्रलय होने वाला है? पृथ्वी बारम्बार कांप रही है। यह प्रलयनाद कैसा है? अकस्मात् इन प्रलयमेघों ने सूर्य का ग्रास कर लिया है। यह विद्युत क्षण-क्षण में चमक रही है। अरे, मित्र! यह क्या माया है?"
विभीषण ने भयभीत होकर कहा, "रघुकुलमणि! राक्षसराज युद्धसाज सज रहा है, पुत्रशोक से वह भस्म हो रहा है। उसी के पदभार से पृथ्वी कांपती है। अब इस संकट से लक्ष्मण और कटक की कैसे रक्षा होगी? राक्षस सैन्य प्रलयनाद की भांति शृगीनाद कर रहा है, अग्निवर्ण वाले स्वर्णध्वज रथ दुर्घोष करते हुए बाहर आ रहे हैं। चतुरंगिणी सेनाओं के पृथक-पृथक व्यूह सजाकर धीर नायक लंका से इस प्रकार बाहर हो रहे हैं, जैसे बांबी से काला सर्प निकलता है। उग्र उदग्र रथियों का सेनानायक है। वज्रधारी इन्द्र की भांति गज-पेनानायक वारुकुल है। अश्वारोहियों का नायक महावीर अतिलोमा हंकार भर रहा है। भयानक आकृति वाला विडालाक्ष पैदलों का अधिपति है। महादुर्मद पताका दल आगे-आगे असंख्य पताकाएं लिए बढ़ रहा है। जैसे दानवनाशिनी चण्डी देवतेज से जन्म लेकर अट्टहास करती देवास्त्रों से सजी थी, उसीभांति उग्रचण्डा राक्षस सेना लंका में युद्धार्थ सज रही हैं, इसी से भू अधीर है।"
४२