पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/५०

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निर्भय मेरे साथ चलो।"

जो आज्ञा, देवी!" फिर सुग्रीव आदि से बोले, "बंधुगण! यह भाग्यहीन राम विपत्ति में आपके सहारे है। अपने प्राणधन को तुम्हें सौंपे जाता हूं।" राम महामाया के साथ प्रेतपुरी चले।

सर्वत्र अंधकार था। कड़कड़ाहट, गर्जन-तर्जन, वैतरणी नदी का कल- कल निनाद। कभी उसपर स्वर्ण पुल दीखता, कभी लुप्त हो जाता। असंख्य प्राणियों का आर्तनाद सुनाई दे रहा था। राम ने कहा, हे, माता! यह अद्भुत चमत्कार कैसा है? यह माया का पुल कभी दीखता है, कभी लुप्त हो जाता है। इस महानदी में असंख्य प्राणी कहां बहे चले जा रहे हैं?"

"राम! यही वैतरणी नदी है, और इसपर यह सेतु कामरूप है। यह पापी के लिए अदृश्य हो जाता है और पुण्यात्मा के लिए प्रकट हो जाता है। आओ, मैं तुम्हें ऐसे दृश्य दिखाऊंगी, जो मानव-नेत्र ने कभी नहीं देखे।"

वे आगे बढ़ीं, विराट मूर्ति दण्डपाणि यमदूत सम्मुख दीख पड़े।

यमदूत ने गरजकर पूछा, "तुम कौन हो और किस बल से तुमने इस आत्मामय प्रदेश में शरीरसहित प्रवेश किया है?"

माया ने हंसकर, त्रिशूल दिखाकर कहा, "यह देखो।"

यमदूत ने नमस्कार करके कहा, "साध्य देवी! आपकी गति रोकने की मेरी सामर्थ्य नहीं।" यह कहकर वे चले गए।

दोनों फिर आगे बढ़े। यमपुरी के लौह द्वार पर ज्वर दीख पड़ा। अस्थि-पंजर थरथर कांपता हुआ, कभी दाह से जलता हुआ।

माया बोली, "हे, राम! यह पापियों के जीवन-मरण का साथी ज्वर है और यह देखो, अजीर्ण है, यह भोजन करता है, वमन करता है और फिर उसे ही खाता है। यह मदिरा है, कैसी आंखें मिचमिचा रही है। इसीके पास यह दुष्टा कामुकता है, इसके शरीर से कैसी बास आ रही है। यह देखो, यह राजयक्ष्मा है, दिन-रात खांस-खांसकर खून थूकती है। यह ज्योतिहीन नेत्रों वाली विशूचिका है। यह देखो, सम्मुख अग्निरथ में युद्ध आ रहा है, उसके वस्त्रों से ताजा रक्त टपकता है। उसका सारथी त्रोध है, गले में मुण्डमाल पहने है। वह आत्मह या वृक्ष से लटक रही है। रस्सी में उसका शरीर झूल रहा है। लाल.जीभ और आधी बन्द आंखें कैसी भयानक हैं। आओ, अब मैं तुम्हें इस यमपुरी में नरकुण्ड दिखाऊं। मिलाकर चौरासी कुण्ड हैं। यह देखो, यही रौरव कुण्ड है। इसमें अनन्त अग्निज्वाल भरा है। परधनहारी यहां वास करता है।"

राम ने अधीर होकर कहा, "दया करो मातेश्वरी! मैं यह सब नहीं

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