पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

गौरव रवि अस्त होगा। जब शूलीसम भाई कुम्भकण और अजेय इन्द्रजात समर में मारे गए, तब अब मैं किस लिए प्राण धारण करूं! इस भव में उन्हें कहां पाऊंगा? मन्त्रिश्रेष्ठ! तुम बैरी राम से जाकर कहो कि राक्षसराज रावण तुमसे यह भिक्षा मांगता है कि सात दिन तक बैरभाव त्याग सैन्यसहित विश्राम करो। राजा अपने पुत्र की अन् येष्टि त्रिया यथाविधि करना चाहता है। उनसे कहना कि हे वीर! तुम्हारे बाहुबल से वीरयोनि लंका अव वीर शून्या है। तुम वीरकुल में धन्य हो, विधि तुम्हारे अनुकूल है, राक्षस कुल विपत्तित्रस्त है, सो तुम वीरधर्म का पालन करो। वीरगण सदा विपक्षी वीर का सम्मान करते हैं। जाओ, मंत्रिवर! अब विलम्ब न करो।"

यह सुन मंत्री सारण वन्दना कर साथियों सहित नीचा सिर किए रोता हुआ राम के पास चला। राबण ठंडी सांस लेकर उठा और अन्तःपुर की ओर बढ़ा।

राम-लक्ष्मण आसन पर बैठे सब वीरोंसहित युद्ध-मंत्रणा कर रहे थे। दल में उत्साह से समरसाज सजने की तैयारियां चल रही थीं। अंगद ने आकर सूचना दी, "देव! जगद्विख्यात राक्षसकुल मंत्री सारण समस्त मंत्रियों एवं प्रमुख राजसभासदों सहित शिविर-द्वार पर उपस्थित होकर चरण-दर्शन की प्रार्थना करता है। जो आज्ञा हो, वह यह दास उससे कहे।"

"युवराज! मंत्रिवर को आदर सहित यहां लाओ। दूत सर्वथा अवध्य होते हैं।"

अंगद चले गए। कुछ देर बाद सारण ने साथियों सहित आकर हाथ जोड़ राम की वन्दना की, "राजपद युग्म की वंदना करता हूं।"

राम ने उन्हें उचित आसन देकर कहा, "राक्षस मंत्रिवर! यह दरिद्र राम आपकी क्या सेवा कर सकता है?"

"प्रभो! राक्षसकुल-निधि रावण आपसे यह भिक्षा मांगता है कि आप सात दिन तक बरभाव त्यागकर सैन्यसहित विश्राम करें। राजा अपने पुत्र की यथाविधि क्रिया करना चाहता है। वीर विपक्षी वीर का सदा सत्कार किया करते हैं। हे, बली! आपके बाहुबल से वीरयोनि स्वर्णलंका अब वीरशून्या हो गई है। विधाता आपके अनुकूल है और राक्षसकुल विपत्ति ग्रस्त है, इसलिए आप रावण का मनोरथ पूर्ण करें।"

"मंत्रिवर! आपका स्वामी मेरा परम शत्रु है, फिर भी मैं उसके दुख से बड़ा दुःखी हूं। विपद में शत्रु-मित्र मेरे लिए समान हैं। तुम लंका को लौट जाओ। मैं सैन्यसहित सात दिन तक अस्त ग्रहण नहीं करूंगा। राक्षस

५२