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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/५३

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जल्दी से चले जाओ और हनुमान को वह ओषधि लेने भेजो। रात रहते ओषधि आनी चाहिए।"

"तात! अपनी चरणरज दीजिए।"

"नहीं, वत्स! तुम मुझे नहीं छू सकते। यह वह शरीर नहीं है, छायामान है।"

राम ने प्रणाम करके कहा, "जैसी आज्ञा।"

बारह

अगला प्रभात आया। रावण विषण्णवदन आकर अपने स्वर्णसिंहासन पर बैठ गया। सभासद, मन्त्री, सेवक सब यथास्थान' बैठे हुए थे। इसी समय राम कटक का उल्लास-कोलाहल सुनाई दिया।

रावण ने मंत्री से पूछा, "सचिव सारण! वैरीगण रात-भर शोकातुर रहे, उनके क्रन्दन से लंका की प्राचीर कांप गई; परन्तु अब यह कैसा आनन्दोल्लास आकाश को विदीर्ण कर रहा है? क्या मूढ़ सौमित्र ने पुनः प्राणदान पाया है?"

सारण ने हाथ जोड़कर कहा, "राजेन्द्र! इस मायिक संसार में देवी माया को कौन समझ सकता है?"

"अरे, देव उसके अनुकूल है। जिस राम ने अविराम सागर को अपने कौशल से बांध डाला, जिसकी माया के तेज से शिलाएं जल में तैरने लगीं जो समर में दो बार मरकर जी उठा, उसके लिए असाध्य है? परन्तु अब यह कौन-सी नयी घटना घटित हुई?"

सारण ने खेदपूर्वक उत्तर दिया, "स्वामी! शैलकुलपति गंधमादन ने निशाकाल में महौषधि देकर लक्ष्मण को प्राणदान दिया है। वही शूर सौमित्र वीरदर्य से गरज रहा है और रामसैन्य उल्लास से नाद कर रहा है।"

"किन्तु सुदूर पर्वतराज के अगम्य शिखर से इस अल्पकाल में कौन बली महौषधि लाया?"

"महामारुति ने यह पराक्रम किया। जैसे हिमान्त में भुजंग तेजपूर्ण हो जाता है, उसी भांति दिव्यौषधि के प्रभाव से लक्ष्मण आज ओज से परिपूण हो रहा है।"

रावण ने विषाद से सांस लेकर कहा, "विधि के विधान में कौन क्या करेगा? सम्मुख समर में मैंने देव और मनुष्य सभी को परास्त कर कल जिस रिपु का वध किया, वह दैवबल से बच गया। यमराज भी अपना धर्म भूल गए। अब इस व्यर्थ प्रलाप से क्या होगा? मैं समझ गया, राक्षसकुल-

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