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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/६१

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"अहा, भगवती सीता आज खिन्न हैं, क्योंकि उनके पिता राजर्षि विदेह जनक अपनी अयोनिजा प्रिय पुत्री के प्रेम से कोसल राज महालय में रहकर आज विदेह राज्य चले गए हैं। इसी से महाराज रघुकुलमणि सब अतिथियों को विदाकर श्रांत-क्लान्त अन्तःतुर में विश्राम करने और भगवती सीता के चित्त को बहलाने के लिए हम्यं में गए हैं।"

पहले नागरिक ने कहा, "राजमहिषी भगवती सीता अनलपूत हैं, फिर भी अज्ञानी जन उनके चरित्र में दोष बखानते हैं।"

दूसरा नागरिक बोला, "भगवती कुछ दिन राक्षस सदन में रहीं न, इसी से?"

ब्रह्मचारी ने कहा, "शान्तं पापं, ऐसा मत कहो। कहीं महाराज के कान तक यह अपवाद पहुंच गया तो अनर्थ हो जाएगा। क्या तुम नहीं जानते कि शीघ्र ही अयोध्या वासी मंगल समारोह करेंगे?"

"ऐसा क्या शुभ समाचार है?"

ब्रह्मचारी ने कहा, "बड़ों के पुण्य प्रताप और ऋषियों के आशीर्वाद से राजमहिषी की गोद भरने वाली है।"

"अहा, तब तो आनन्द ही आनन्द है।"

"देवता और पितर कृपा करें!"

ब्रह्मचारी ने विदा लेते हुए कहा, "अच्छा, चलता हूं, इस यज्ञपूत तीर्थोदक से भगवती राजमहिषी सीता का मार्जन कर आऊं, स्वस्तिरस्तु!"

ब्रह्मचारी उन दोनों नागरिकों को 'स्वस्ति' कहकर चल दिया। दोनों नागरिक भी राजमहिषी की गोद भरने की प्रसन्नता में भर अपनी-अपनी राह लो।

सत्रह

संध्या हो रही थी। राजमहल के पुष्पोद्यान में सीता और राम साथ बैठे प्रकृति का आनन्द ले रहे थे। सरयू का तीर बड़ा भला लग रहा था।

सीता ने राम का हाथ पकड़कर कहा, "महाराज! आज मैं आपसे न बोलूंगी। दिन-भर यह दासी आंखें बिछाए महाराज की वाट देखती रही और महाराज ने अब दर्शन दिए।"

राम ने प्रेम बिखेरकर उत्तर दिया, "देवी सीते! राजकाज के झंझट तो ऐसे ही हैं; पर तुम्हारे इस दास के प्राण तो सदा तुम्हीं में अटके रहते हैं।"

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