पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/६२

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"बातें बनाना तो आर्यपुत्र खूब जानते हैं। वह राज्यलक्ष्मी भी प्रेमियों की बैरी है।"

"इसी से तो राजा सब मनुष्यों से निरीह कहलाया है।"

"यह मैं नहीं जानती। मैं तो निरन्तर आर्यपुत्र का सहवा-सन्निध्यचाहती हूं: तनिक भी दर्शनों में देर होती है, तो बीती हुई विरह-व्यथा पीड़ित करने लगती है। आपके शुभदर्शन, शुभहास्य और दिव्यदृष्टि से मुझे जो सुख और तृप्ति मिलती है, वह अकथ्य है। नेत्रों के आगे से सब कुछ लुप्त हो जाता है, आप ही की भव्य मूर्ति रह जाती है।"

"तो प्रिए! मैं तो तुम्हारा ही हूं। तुम मेरे हृदय की रानी हो। सोते- जागते मिलन में, विरह में तुम्हीं से सदा मेरा हृदय पूर्ण रहता है।"

"जानती हूं आर्यपुत्र! इसी से तो कभी-कभी मैं घबरा जाती हूं। कहीं विधाता को हमारा यह सुख-साहचर्य असह्य न हो जाए।"

"अहा, ऐसा क्यों मोवती हो वरिष्ठे! देखो, सरयु के मलिल में स्नातपुत होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वयार हमें कैगा त्रिय सन्देश दे रही है! चन्द्रमा के अमृत को पानकर चकोर कैसा मत हो रहा है! यह पत्तों की कोमल मरध्वनि, पुष्प-पराग की महक हमारी इस मिलन-यामिनी पर मुग्ध हैं। देखो, तो यह वसुधा आज कैसी-मधुमयी दीख रही है।"

"वे दिन भी आज याद आते हैं आर्यपुत्र! जब रात इसी भांति चन्द्र- ज्योत्स्ना से उज्ज्वल हो जाती थी और गोरावरी तट पर की उस पर्णकुटी में मैं आपके सुखद अंक में सो जाती थी!"

"तो प्रिए! तुम्हें क्या आज इस राजमहालय की अपेक्षा वह पर्णकुटी अधिक प्रिय प्रतीत हो रही है?"

मुझे तो केवल आपका सान्निध्य-सुख प्रिय है। राज महालय हो या पर्णकुटी। जहां आपके पावन चरण हैं, स्निग्धदृष्टि है, स्नेहसिक्त वक्ष है, वही स्थान मुझे प्रिय है। तो इन फूलों में आप ही को देखती हूं, पत्तों की मर्मर ध्वनि में आप ही का कण्ठस्वर सुनती हूं, चन्द्रमा की चांदनी में आप ही की छवि माधुरी देखती हूं।"

"प्रिय! मैं भी अखिल विश्व को सीतामय देखता हूं।"

"जब मैं लंका में थी, तब एक पल एक युग के समान कटता था। उस समय भी चन्द्रमा इसी तरह आकाश में उदय होता था, तब ऐसा प्रतीत होता था मानो विश्व में आग लग गयी है। मलय वायु के स्पर्श से मैं सिहर उठती थी। हृदय में दिन-रात दाह होता था। रात जैसे बीतने ही न पाती थी और प्रत्येक सूर्योदय एक नई निराशा मन में जाग्रत करता था। कोकिल जैसे मेरा उपहास करती थी।"

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