बोले, "प्रिये! अब हमारी आंखें अपने पुत्र को देखकर तृप्त होंगी।"
सीता ने सहास्य उत्तर दिया, "हां, आर्यपुत्र!"
इसी समय लक्ष्मण हाथ में कुछ चित्र लेकर वहां आये।
सीता ने पूछा, "देवर जी! यह क्या लाये हो?"
लक्ष्मण ने पास आकर कहा, "देखिए, भाभी! कैसे अच्छे चित्र बने हैं। इनमें हमारे सम्पूर्ण जीवन की कथा आ गई।"
राम ने कहा, "भ्राता लक्ष्मण! देवी के मन को रिझाने के तुम्हें खूब ढंग आते हैं। देखें, कैसे चित्र हैं? अरे, यह तो जनकपुरी की छवि है।"
सीता ने उन्हें प्रशंसित दृष्टि से देखते हुए कहा, अहा, आप नये फूले हुए कमल के समान चुपचाप महात्मा विश्वामित्र के पास खड़े हैं और देवर जी भी कैसे सलोने बने हैं। देखिए, पिता जी अचरज में भरकर आप का रूप निहार रहे हैं।"
लक्ष्मण ने इंगित करके कहा, "देखिए, भाभी! यह आपके पिता गुरु वसिष्ठ की पूजा कर रहे हैं, विवाह का मण्डप सजा है। राजा-रानी, ऋषि-मुनि, देव-गन्धर्वो की भीड़ लगी है। यह आप हैं, यह भाभी मण्डवी हैं, यह बहू श्रुतिकीति है।"
सीता ने विनोद से पूछा, "देवर जी! यह चौथी कौन है?"
"उसे जाने दीजिए। यह देखिए, परशुराम जी हैं।"
"मैं डर गई।"
राम दूसरी तस्वीर देखकर बोले, "अरे, यह तो अयोध्या की उस समय की छवि है, जब हम विवाह करके लौटे थे। कैसी आनन्द-बधाइयाँ बज रही हैं।"
राम की आंखें गीली हो गयीं। यह देख सीता ने कहा, "आह, महाराज की आंखों में आंसू क्यों आ गए?"
"देवी! पिता की छवि देख उनके चरणों की याद आ गई। हाय, वे चरण अब कहां?"
लक्ष्मण ने विषय बदलकर कहा, "यह मन्थरा और मझली माता है।
राम दूसरा चित्र देखकर वोले, "अहा, इस चित्र में गंगा की धारा कैसे बह रही है, ऋषियों के आश्रम कैसे भले मालूम देते हैं!"
लक्ष्मण ने कहा, "धन्य महाराज! आपने मझली मां का चित्र तो देखा भी अनदेखा कर दिया।"
"उसे जाने दो भाई। यह देखो, चित्रकूट की राह में यही वह बड़ का पेड़ है, जिसे भरद्वाज मुनि ने पाला-पोसा था। देखो, यमुना के जल में
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