इसकी परछाई कैसी कांपती हुई-सी दीख रही है।"
सीता ने पूछा, "क्या आर्यपुत्र की अभी तक इसकी स्मृति बनी है?"
"भला, इसे मैं भूल सकता हूं क्या? इसी के नीचे बैठकर तो मैंने तुम्हारे पैरों से कांटा निकाला था और तुमने भी अपने आंचल से मेरे मुंह का पसीना पोंछा था। अरे, देवी! तुम रोने क्यों लगीं?"
"महाराज! उस दुःख में भी कैसा सुख था? राज्य का यह बोझ तो जैसे हमें दबा डालता है। महाराज! मेरे मन में एक साध पैदा हुई है।"
"कैसी साध देवी!"
"मैं चाहती हूं कि एक बार फिर वन में विहार करूं और जंगल में नदी के जल में किलोलें करूं। अहा, वे दिन भी कैसे प्यारे थे, जब चांदनी रात में गोदावरी के किनारे हमारी कुटिया थी! फूल हमें देखकर हंसते थे, हवा हमसे अठखेलियां करती थी, तारे हमपर झांक-झांककर मुस्कराते थे, चम्पा और चमेली की कलियों से भरी डालें झूम-झूमकर हमें पास बुलाती थीं।"
"सीते! राजमहल के यह महाभोग पाकर भी आज तुम्हें उनकी याद आ रही है?"
"महाराज! यह राजमहल, गहने, हीरे, मोती, दास, दासी जैसे हमारे ऊपर बोझ हैं। तब हम और आप बिलकुल पास-पास थे।"
"और अब?"
"अब राजनीति हमारे-आपके बीच आ गई है। महाराज! मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हम लोग पल-पल में दूर हो रहे हैं। वहां हम एक थे, यहां आते ही दो हो गए। आप हो गए राजा, मैं हो गई रानी। राज- काज आपको न जाने कहां-कहां खींच ले जाता है और इस अवरोध के भीतर मैं हीरे-मोतियों की श्रृंखला से बंधी पड़ी रहती हूं।"
"प्रिये! ऐसा क्यों सोचती हो?"
"आर्यपुत्र! एक पल को भी आपसे दूर रहने पर मेरा दिल धड़कने लगता है।"
"सीते! मैंने बड़े कष्ट से तुम्हें पाया है। अब मैं तुम्हें सदा अपने हृदय में रखूगा।"
"तो चलिए, आर्यपुत्र! एक बार फिर वन का आनन्द उठाया जाए, ऋषियों का दर्शन करके उनका आशीर्वाद लिया जाए।"
यह सुन राम हंस दिए, फिर बोले, "ऐसी इच्छा है तो लक्ष्मण कल ले जाकर तुम्हारा वन-विहार करा लाएंगे प्रिये!"
और आप?"
राज्याभिषेक—५
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