पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/७६

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"कहना, अभागिनी सीता ने कहा है कि जब पहले राज्यलक्ष्मी आपकी गोद में आई थी, तब मैं आपको वन में ले भागी थी। अब राज्यलक्ष्मी की बारी है कि उसने मुझे आपसे दूर करके वन में भगा दिया है। इसमें आपका दोष नहीं, मेरे ही भाग्य का दोष है। मैं आपके विना व भी न रहती, तुरन्त प्राण त्याग देती; पर आपका तेज मेरे शरीर में है, इसलिए पुत्र वे जन्म लेने तक मैं सूर्य में दृष्टि लगाकर तप व रूंगी कि जि.ससे पि र मुझे आप ही पति मिलें।' "धन्य भाभी ! अब मैं जाऊं?" "जाओ, आर्यपुत्र से कहना, सीता के सब अपराध क्षमा हों।" "भाभी ! मेरा मन हाहाकार कर रहा है ।" "देवर ! राजधर्म बड़ा कठोर है और भाग्य उससे भी अधिक ।" "भाभी !" कहते-कहते लक्ष्मण मूछित हो पृथ्वी पर गिर पड़े। सीता विलाप कर उठी, "अरे, मूच्छित होकर गिर गए। अब मैं क्या करूं?" परन्तु लक्ष्मण की मूर्दा शीघ्र ही दूर हो गई। उन्होंने कहा, "नहीं भाभी ! मैं अब ठीक हो गया। मैं चला।' सीता ने नयनों में छलकते नीर को रोककर वहा, "जाओ, तुम्हारा मार्ग शुभ हो !" "भाभी ! वन के देवता तुम्हारी रक्षा करें ! अभिवादन करता 6 64 "सुखी रहो ! सुनो, आर्यपुत्र के चरणों में प्रणाम कह देना।" "अच्छा।" "मेरी सब दासियों और सखियों को मेरे सब गहने, जिन्हें जो पसन्द करें, बांट देना । अब इन्हें मेरे पहनने के दिन बीत चुके।" i भाभी !" "उनसे कहना मेरे मोर और सुग्गों को ठीक समय दाना-पानी देते रहें।" भाभी !" "आर्यपुत्र से कहना, मेरे उस हिरन के बच्चे को सदा प्यार करते रहें। हाय, उसे तो बिना मेरी गोद के कहीं एक पल चैन ही नहीं पड़ता था। "भाभी !" "लक्ष्मण ! सब बहुओं को आसीस देना, वे सदा सुहागिन रहें।" "भाभी !" 64 ७४