गुरु वाल्मीकि के समीप आने पर दोनों ने उन्हें अभिवादन किया, "गुरु जी प्रणाम!"
"चिरंजीव रहो पुत्रो! यहां तुम क्या कर रहे हो?"
"आर्य! यह स्त्री यहां मूर्च्छित पड़ी है।"
वाल्मीकि ने मूर्च्छित सीता को देखा और पहचानकर आश्चर्य से बोले, "अरे, यह तो रघुकुल की राजरानी सीता हैं।"
"क्या महारानी सीता हैं?"
"पुत्रो! यत्न करो। कमण्डलु से जल के छींटे दो। सचेत करो इन्हें।"
छीटे देने से सीता की संज्ञा लौट आई। उसके मुंह से निकला, "आह, वह स्वप्न भी टूट गया।
ऋषिकुमारों को देखकर वह उठ बैठी और पूछा, "आप कोन हैं ऋषिकुमार?" फिर ऋषि को भी देखकर बोली, "और आप?"
एक ऋषिकुमार ने उत्तर दिया, "भगवती यह हमारे गुरु महर्षि वाल्मीकि हैं।"
सीता सावधान होकर उठ खड़ी हुई, "ऋषिवर, प्रणाम! अभागिनी सीता को कहीं आसरा मिलेगा? उसके पापी प्राण तो उसके शरीर से बहुत ही मोह रखते हैं।"
वाल्मीकि ने स्नेह से कहा, "पुत्री! संसार गोरखधंधा है और जीवन भी। तुम धर्य धारण करके भाग्य के विधान को देखो। पुत्रो! देवी को आश्रम में ले जाकर भगवती आत्रेयी को सौंप दो। उनसे कह देना कि यह रघुकुल राजरानी सीता हैं। इनको कोई दुःख न हो।"
"जो आज्ञा महाराज! चलिए महारानी!"
बीस
अयोध्या लौटकर लक्ष्मण महाराज राम को संदेश देने उनके पास गए और उन्हें प्रणाम करके खड़े हो गए। राम ने उन्हें देखकर पूछा, "आ गए भैया लक्ष्मण!"
"हां, महाराज!"
"सीता कहां छोड़ी भैया!"
"महात्मा वाल्मीकि के आश्रम के पास वन में।"
"वह आश्रम में पहुंच गई होगी भैया!"
"पहुंच गई होंगी महाराज!"
"लक्ष्मण! क्या क्रुद्ध हो रहे हो भैया!"
७६