पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/७९

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66 6 66 ( "महाराज ! सेवक स्वामी पर कैसे क्रुद्ध हो सकता है ?" "भैया लक्ष्मण !" "अब महाराज की आज्ञा हो तो मैं, राजपरिवार की सब बहुओं को सरयू में डूबो आऊं। आज्ञा दीजिए महाराज !" "भैया ! शान्त हो।" "महाराज ! यदि मुझे ज्ञात होता कि मुझे ऐसा निष्ठुर काम करना पड़ेगा, तो मैं पहले ही प्राण त्याग देता।" "भाई ! राजधर्म बड़ा कठोर है।" 'यह दास उसे नहीं समझता महाराज ! भगवती सीता को मैं गंगा के उस पार वन में धरती में मूच्छिता-असहाय पड़ी छोड़ आया हूं।" "मूच्छिता!" "वह एकटक मेरा लौटना देखती रहीं । जब मैं इस पार आकर रथ पर चढ़कर चलने लगा, तो वह कटे पेड़ की भांति गिर पड़ी।" "हाय, देवी सीता !" "मैं कुछ भी न कर सका महाराज ! अब मुझे मरवा डालिए । हाय रे, राजधर्म !" "इस राजधर्म पर धिक्कार है ! भाई लक्ष्मण ! धीरज धरो। हाय, गुरु वसिष्ठ ! भगवती अरुंधती और सब माताएं यह सब सुनेंगी, तो क्या कहेंगी? उन्हें कैसे समझाया जाएगा ?" "वे सब सुन चुकी हैं महाराज !" "सुन चुकी हैं, तो उन्होंने इस निर्दयी राम पर क्रोध नहीं किया? शाप नहीं दिया?" "महाराज वे सब अब अयोध्या में लौटकर नहीं आएंगी।" "अयोध्या में नहीं आएंगी ?" "हां, महाराज !" "क्यों भाई ?" "भगवती अरुंधती ने कहा कि सीता के बिना हम अयोध्या में नहीं रहेंगे।" "भगवती अरुंधती ने ?" "जी हां और सब माताओं ने भी उन्हीं का साथ दिया।" "सब माताओं ने भी ?" "गुरु वसिष्ठ ने भी यही ठीक समझा।" "तो उन्होंने भी दास को त्याग दिया? तो अब केवल तुम ही इस पापी राजा की परछाई की भांति यहां बचे हो?" 64 ७७