लक्ष्मण ने उतर दिया, "महाराज की आज्ञा से मैंने चर भेजा था; परन्तु उन्होंने कहा, निष्पाप भगवती सीता के साथ ऐसा निर्मम दुष्कृत्य करने वाले राजा से मेरा क्या सम्बन्ध है?"
"ठीक ही तो कहा, जिस भरत ने मुझ भाग्यहीन के लिए अयोध्या के साम्राज्य को ठुकरा दिया, चौदह वर्ष मेरी पादुका लेकर, जिसने अपनी असीम निष्ठा का परिचय दिया, उसी प्राणाधिक भरत ने आज मुझे त्याग दिया, सो दोष मेरा ही है।"
शत्रुघ्न ने लवण को परास्त कर मधुपुरी अपने अधीन कर ली है। वे भी वहीं बस गए हैं।"
"समझ गया। इस अधम राजा का मुंह वे नहीं देखना चाहते। यह भी ठीक है।"
"महात्मा ऋष्यशृंग का सत्र सम्पूर्ण हो गया। अब महर्षि वसिष्ठ और भगवती अरुंधती सब माताओं तथा राजपरिवार सहित गुरुकुल वास के लिए चले गए हैं।"
"तो वे सब गुरुपद अब राजधानी में नहीं आएंगे?"
"ऐसा ही है महाराज!"
"वत्स लक्ष्मण, अब केवल तुम्ही देवता की भांति अपने दम से इस अधम राम की रक्षा कर रहे हो। भाई! तुम्हारी अमर-अक्षय कीर्ति जगत में जब तक सूर्य-चन्द्र हैं, तब तक गायी जाएगी। तुम्हारा प्रेम पवित्र है, चरित्र महान है, त्याग अनुपम है, तुम्हारे गुण ऐसे हैं कि सारे संसार के मनुष्य तुम्हारी पूजा करेंगे।"
"महाराज! इन बातों का अब क्या प्रकरण है?"
जिस दिन युद्ध में तुम्हारी छाती में शक्ति लगी थी, तुम्हारे घाव से रक्त की धार बह रही थी, तब मेरे नेत्रों में अंधकार छा गया था। उस दिन मैं ने समझा था कि हम-तुम दोनों संसार-सागर में एक नाव पर सवार हैं। हमारे शरीर दो हैं, प्राण एक हैं। हम कभी अलग नहीं हो सकते। सो आज तुम ही मेरे पास रह गए। सबने मुझे त्याग दिया।"
महाराज! अब दुःख करने से क्या लाभ है? देखिए, वह ऋषिवर वामदेव आ रहे हैं।"
इसी समय ऋषि वामदेव वहां आ पहुंचे। राम ने उठकर उनका अभिवादन किया, अभिवादन करता हूं भगवन्!"
महाराज की जय हो! सब अकल्याण दूर हों।"
कहिए, ऋषिवर! आज किस आज्ञा से इस दास को धन्य करने इस समय पधारने का कष्ट किया?"
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