"तो उस धर्मात्मा राजा ने केवल अपवाद के भय से गर्भभार से व्याकुल वैदेही को त्यागते हुए मन में ग्लानि नहीं की?"
"अरे, हम तपस्वी राजकाज की जटिलता क्या जानें। कहा है न, तप से राजा होता है और अधर्म से राजा नरक में जाता है। सो ठीक ही है। कर्तव्यवश राजा को घोर कर्म भी करने पड़ते हैं।"
"अकारण पत्नी का निष्कासन जैसा निष्ठुर काम भी करना पड़ता है?"
"राजा ने बहुत अनुनय-विनय कर राजपरिवार को राजधानी में बुलाया था; परन्तु भगवती अरुंधती का क्रोध शान्त न हुआ। अब महर्षि वसिष्ठ ने कहा है कि अपने गुरुकुल ही में राजमाताओं सहित चलकर रहेंगे।"
"तो रघुकुल की रक्षा कैसे होगी? सुना है, महात्मा भरत भी अयोध्या में नहीं हैं।"
वे मामा के यहां देवी माण्डवी सहित रहने लगे हैं। कोसल के राज्य से उन्हें अब क्या लेना-देना है?"
"अहो, यह तो अद्भुत व्यापार है। जिस सीता के लिए राजा ने महा पराक्रम कर महाबली रावण का सवंश नाश किया, उसी सीता को उसने इस प्रकार त्याग दिया। ऐसा तो कोई पति नहीं कर सकता।"
"भाई! राजकाज के सौ झंझट हैं।"
"न जाने अब भगवती सीता कहां हैं, कैसी हैं?"
"सुना है, महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में हैं।"
"यह भी तो सुनते हैं कि महर्षि वाल्मीकि को शब्दब्रह्म का प्रकाश स्पष्ट हुआ है और वे दिव्यदृष्टि और आषंज्ञान से रागात्मक काव्य रच रहे हैं।"
"ऐसा ही सुनते हैं। यह भी सुना है, दो ऋषिकुमार दिव्यवाणी से वह काव्य-गायन करते हैं।"
"यह तो वेद से भिन्न पहली ही रचना है।"
"ऐसा ही है। लो, धूप चढ़ गई, भगवती अरुंधती का आज उपवास है। चलूं देखूं, भगवती क्या आज्ञा देती हैं?"
तेईस
राम ने ठण्डी सांस लेकर लक्ष्मण से पूछा, "तो अब भरत अयोध्या में नहीं आएंगे?"
८१
राज्याभिषेक—६