पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/८७

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60 4 "मैंने ऐसी निठुराई करके अपने ही ऊपर अत्याचार किया है।" अपने ही ऊपर क्यों भद्र ?" "हां, ऋषिवर ! अब आप ऐसी आज्ञा मत दीजिए कि मैं सीता पर अत्याचार करूं। "अब सीता पर और क्या अत्याचार होगा रामभद्र !" "दूसरा विवाह करना सीता पर अत्याचार है।" "धन्य रामभद्र ! धन्य हो तुम ! धन्य तुम्हारी निष्ठा ! धन्य तुम्हारा प्रेम !" "तो भगवन् ! अश्वमेध नहीं हो सकेगा ?" "हो सकेगा राम । सीता की सोने की मूर्ति तुम्हारीअधांगिनी होगी।" "ऋषिवर...!" "रामभद्र ! शान्त हो !" "सीता की मूर्ति ?" "हां, राम !"

मेरे अहोभाग्य भगवन् ! मैं उस मूर्ति में पवित्रात्मा सीता को देख

पाऊंगा तो?" अवश्य, राम ! तुम यज्ञ की तैयारी करो।" "जो आज्ञा ऋषिवर !" और स्वयं महात्मा वाल्मीकि के आश्रम में जाकर उन्हें निमन्त्रण दे आओ।" 'जो आज्ञा; परन्तु ऋषिवर स्वयं और माताएं भी चलेंगी तो अच्छा।" "ऐसा ही हो राम भद्र ! मैं उनसे कह कह दूंगा।" "तो दास चला। माताओं को मुंह दिखाने की ढिठाई मुझसे न होगी।" "समय पर सब होगा राम ! जाओ, अपना कार्य करो। कुण्ठित न हो।" "अभिवादन करता हूं गुरुदेव !" "तुम्हारा कल्याण हो रामभद्र !" चौबीस एक दिन भगवान वाल्मीकि के आश्रम में लव और कुश सीता से जिद्द करने लगे। लव ने कहा, “माता ! आज हम तुमसे वह भेद पूछकर ८५