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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/८७

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"मैंने ऐसी निठुराई करके अपने ही ऊपर अत्याचार किया है।"

"अपने ही ऊपर क्यों भद्र?"

"हां, ऋषिवर! अब आप ऐसी आज्ञा मत दीजिए कि मैं सीता पर अत्याचार करूं।"

"अब सीता पर और क्या अत्याचार होगा रामभद्र!"

"दूसरा विवाह करना सीता पर अत्याचार है।"

"धन्य रामभद्र! धन्य हो तुम! धन्य तुम्हारी निष्ठा! धन्य तुम्हारा प्रेम!"

"तो भगवन्! अश्वमेध नहीं हो सकेगा?"

"हो सकेगा राम। सीता की सोने की मूर्ति तुम्हारी अर्धागिनी होगी।"

"ऋषिवरॱॱॱ!"

"रामभद्र! शान्त हो!"

"सीता की मूर्ति?"

"हां, राम!"

"मेरे अहोभाग्य भगवन्! मैं उस मूर्ति में पवित्रात्मा सीता को देख पाऊंगा तो?"

"अवश्य, राम! तुम यज्ञ की तैयारी करो।"

"जो आज्ञा ऋषिवर!"

"और स्वयं महात्मा वाल्मीकि के आश्रम में जाकर उन्हें निमन्त्रण दे आओ।"

"जो आज्ञा; परन्तु ऋषिवर स्वयं और माताएं भी चलेंगी तो अच्छा।"

"ऐसा ही हो राम भद्र! मैं उनसे कह कह दूंगा।"

"तो दास चला। माताओं को मुंह दिखाने की ढिठाई मुझसे न होगी।"

"समय पर सब होगा राम! जाओ, अपना कार्य करो। कुण्ठित न हो।"

"अभिवादन करता हूं गुरुदेव!"

"तुम्हारा कल्याण हो रामभद्र!"

चौबीस

एक दिन भगवान वाल्मीकि के आश्रम में लव और कुश सीता से जिद्द करने लगे। लव ने कहा, "माता! आज हम तुमसे वह भेद पूछकर

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