राम बुदबुदाए, "वही-वही-वही-वही स्वर है। सीता प्रिये! संध्या हो रही है। पृथ्वी सुनहरी रंग गई है। उस बरगद की डालियों की जड़ें धरती को चूम रही हैं। कौन पक्षी गा रहा है? पम्मा सरोवरॱॱॱ।"
सीता ने कहा, "सखी! आर्यपुत्र पुरानी बातों के सपने देख रहे हैं।"
"यही तो पंचवटी है। यहीं तो हमारी कुटिया थी। उसमें सीता रहती थी। सीते! ओ, प्रियम्बदा सीते!"
"हाय, सुप्राणेश्वर! वह अधम दासी जीती-जागती यहीं है।"
"कहां? कौन तुम? मैं कहां?"
वासन्ती ने राम के सिर पर हाथ रखकर कहा, "महाराज! सावधान होइए। यह देवी सीता हैं।"
"देवी सीता!"
'हां, महाराज!"
राम ने आंख खोलकर सीता को देखा। सीता को उस वेश में देखकर राम का मन हाहाकार कर उठा। वे बोले, "देवी! तुम्हारा यह मलिन वेश, उलझे हुए बाल। तो तुम देवी सीता हो?"
"हां, यह अभागिनी आपकी दासी सीता है।"
"जनक की राजदुलारी?"
"हां, आर्यपुत्र!"
"हाय, प्रिये! मेरे रहते तुम्हारी यह दशा हो गई। अरे, देवी का यह रूप देखने से पूर्व ही मेरी आंखें फूट जाएं।"
"महाराज! इस जन्म में दर्शन हो गए। जीवन सफल हो गया। अरे, वे भगवती अरुन्धती और माता कौशल्या इधर ही आ रही हैं।"
"उन्हें यह अधम राम कैसे मुंह दिखलाएगा।"
इसी समय वहां कौशल्या और अरुन्धती भी आ पहुंचीं।
कौशल्या ने अरुन्धती से पूछा, "भगवती! वह रामचन्द्र ही हैं न? अब तो पहचाने भी नहीं जाते। अरे, पुत्र राम!"
अरुन्धती ने कहा, "महारानी! वहां सौभाग्यवती सीता भी हैं।"
"तो सचमुच पुत्र और बहू में मेल हो ही गया।"
"हां, महारानी! आओ, रामचन्द्र का संकोच दूर करें।" वे और आगे बढ़ीं। राम ने माता को देखकर कहा, "माता! यह कुपुत्र राम आपके चरणों में अभिवादन करता है।"
"रामचन्द्र! मेरे पुत्र! आओ। मेरी छाती को ठंडी करो। अरी, बेटी सीता! मेरी सुलक्षणा बहू! अरी तपस्विनी! तू धन्य है!"
"पूज्ये! आपकी दासी सीता अभिवादन करती है।"
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