अरुन्धती और कौशल्या ने आशीर्वाद देते हुए कहा, "सौभाग्यवती रहो। रामचन्द्र! तो तुमने सीता को ग्रहण किया न पुत्र!"
एक ऋषिकुमार ने आकर सूचना दी कि विदेहराज जनक आप लोगों से मिलने आ रहे हैं।
यह सुन कौशल्या ने भय से कहा, "हाय, मैं कैसे उन राजर्षि को मुंह दिखलाऊंगी?"
राम बोले, "माता अपराधी तो मैं हूं। मैंने ही तो जनकदुलारी को अनाथ बनाया।"
राजा जनक आ पहुंचे। उन्होंने प्रणाम करते हुए कहा, "भगवती अरुन्धती! सीरध्वज जनक आपको प्रणाम करता है। अरे, क्या प्रजा पालने वाले राजा की माता भी यहीं हैं और मेरी बेटी सीता भी? हाय, मेरी प्यारी बच्ची!"
राजा जनक की बातों में उलाहना समझकर कौशल्या मूर्च्छित होकर गिर पड़ीं। अरुन्धती ने कहा, "महाराज! महारानी कौशल्या ने तो इसी क्रोध से अठारह बरस तक रामचन्द्र का मुंह नहीं देखा। रामचन्द्र ने भी अपवाद के भय से यह काम किया था।"
जनक ने पश्चाताप के स्वर में कहा, मैंने बहुत कठोर बात कह दी, बुरा किया। यह महात्मा दशरथ की पत्नी बड़ी सती है। अरे, मित्र दशरथ, तुम्हीं स्वर्ग में अच्छे रहे। हम जीवित रहकर यहां दुःख भोग रहे हैं।"
परन्तु कौशल्या की चेतना शीघ्र ही लौट आई। उन्होंने कहा, "बेटी जानकी! जब तू नई बहू बनकर महल में आई थी, उस समय का तेरा हीरे मोतियों से सजा हुआ हंसता मुख मुझे याद है। स्वर्गवासी महाराज तो तुझे अपनी कन्या ही कहा करते थे। आज हमारे रहते तेरी यह दशा हो गई।"
अरुन्धती ने धीरज बंधाते हुए कहा, "महारानी! धीरज धरो। अंत में सब भला होगा।"
इसी समय एक ऋषिकुमार ने आकर सूचना दी, गुरुदेव वाल्मीकि सबको स्मरण कर रहे हैं। वहीं महामुनि वसिष्ठ भी बैठे हैं।"
अरुन्धती ने कहा, चलो, रामचन्द्र! महारानी और विदेहराज चलो। बेटी सीता! सब कोई महात्मा वाल्मीकि के पास चलें।"
सब चलकर वाल्मीकि के पास आए। राम बोले, "ऋषिवर! आपके चरणों में यह अधम राम अभिवादन करता है।"
"राजा राम! तुम्हारी जय हो। कहो, राज्य में सब कुशल तो है?"
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