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पृष्ठ:राज्याभिषेक.djvu/९९

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"रामभद्र! सीता पर यह बड़ा अन्याय है।"

"भगवन! इस राजधर्म पर ही धिक्कार है।"

वाल्मीकि ने त्रोध से कहा, "अरे, राजा! यह सती अठारह वर्ष तक तुम्हारे लिए रोती रही है। चातक की भांति रट लगाए रही है। अरे, इसके पीले और उदास मुख की ओर तो देखो।"

जनक चीत्कार कर उठे, "हाय, बेटी!"

कौशल्या ने रोते-रोते कहा, "इतने बड़े राजा की रानी, वीर पुत्रों की माता, रघुकुल की बहू की आज यह दुर्दशा।"

राम सिर झुकाए बोले, माता! मैं राजधर्म में बंधा हूं। जब तक प्रजा को विश्वासॱॱॱ।"

जनक उत्तेजित हो उठे, "क्या कहा? विश्वास! अरे, मेरी बेटी पर अविश्वास?"

सीता ने बाधा देकर कहा, "पिता जी ठहरिए। आर्यपुत्र को मैं फिर से अपनी परीक्षा दूंगी।"

राम ने कहा, "यदि वह परीक्षा यहां बैठे गुरुजनों की दृष्टि में ठीक हुई तो मैं तुम्हें ग्रहण करूंगा।"

"सब सावधान होकर देखें, मैं परीक्षा देती हूं।"

"माता वसुन्धरे! जो मैंने आज तक पति को छोड़कर और किसी का भी ध्यान किया हो, कभी स्वप्न में भी पति पर क्रोध किया हो, यदि मैं पवित्र सती हूं, तो वसुन्धरे मां! तुम अभी फट जाओ और मुझे अपनी गोद में ले लो।"

सीता की बात समाप्त होते ही बड़े जोर की गड़गड़ाहट हुई। भूचाल-सा आ गया। सब चिल्लाने लगे। धरती फट गई और सीता उसमें समा गई।

 

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राज्याभिषेक—७