मन से जाना चाहे तो चला जाय, मैं जाने की सलाह न दूंगा।
इस प्रकार मेरे हठ और माता-पिता के निरोध की खींचातानी में एक वर्ष बीत गया। एक दिन संयेाग पा कर मैं हल बन्दर की ओर झूमने गया। जाते समय मेरा भागने का इरादा बिलकुल ही न था। किन्तु वहाँ जाकर मैंने देखा, मेरा एक साथी अपने पिता के जहाज़ पर सवार होकर समुद्रपथ से लन्दन जा रहा है। वह अपने साथ मुझको ले जाने के लिए बार बार अनुरोध करने लगा और मुझ से कहने लगा कि जाने का तुम्हें कुछ खर्च न देना होगा। तब मैं माँ-बाप की अनुमति की अपेक्षा न कर के, उन लोगों को अपने जाने की कोई खबर दिये बिना ही जाने को प्रस्तुत हुआ। १६५१ ईसवी की पहली सितम्बर मेरे लिए एक अशुभ मुहूर्त था। उसी अशुभ मुहूर्त में शुभा-शुभ परिणाम की कुछ परवा न कर के, पिता-माता के बिना कुछ खबर दिये ही, ईश्वर से मङ्गल और माँ-बाप से आशीर्वाद की प्रार्थना किये बिना ही मैं उस लन्दन जानेवाले जहाज़ में जा बैठा।
यात्रा का आरम्भ होते न होते मेरी विपत्ति का आरम्भ होगया। जहाज़ खुल कर अभी बीच समुद्र में भी न गया था कि हवा ज़ोर से चलने लगी और समुद्र का जल ऊपर की ओर उछलने लगा। तरङ्ग पर तरङ्ग उठने लगी। देखते ही देखते समुद्र का आकार भयङ्कर हो उठा। मैंने इसके पूर्व कभी समुद्रयात्रा न की थी, इसलिए मेरा जी घूमने लगा। बारंबार वमन के वेग से शरीर, और डर से हृदय, काँपने लगा। मैं मन ही मन सोचने लगा--"दुष्ट महामूर्ख की भाँति,