अपनी माँ के कुछ विशेष प्रसन्न देख कर कहा—माँ, मेरा
मन विदेश देखने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है कि मैं उसे
किसी तरह शान्त नहीं कर सकता । मेरी उम्र अठारह वर्ष
की हो चुकी । मैं इतनी उम्र में चाहता तो कोई व्यवसाय
करता या कहीं अध्यापनवृत्ति करता पर ये सब काम मुझसे
न होंगे कारण यह कि उन कामों में मेरा जी ही नहीं लगता।
मेरा मन यही चाहता है कि मैं कामधन्धा छोड़ कर देश
देशान्तर में घूमता फिरूँ, या एक दिन अपने मालिक का
काम छोड़ कर समुद्र की ओर रवाना हो जाऊँ। मेरी उम्र
अब विदेश जाने योग्य हो गई । तुम लोग एक बार मुझे समुद्र
की सैर कर आने दो । यदि समुद्र यात्रा मेरे पसन्द न आवेगी
तो मैं घर लौट आऊँगा औौर तुम लोगों का आाज्ञाकारी हो
कर रहूंगा; तब तुम लोग जो कहोगी वही कहूंगा । पिता जी से
कह कर तुम उन से अनुमति दिला दो, नहीं तो तुम लोगों
की अनुमति लिये बिना ही मैं चला जाऊँगा। क्या यही
अच्छा होगा ?
मेरी बात सुन कर माँ क्रोध से एकदम जल-भुन उटी । वह बोली—मैं यह बात उनसे कभी न कह सकेंगी; तुम्हारे जी में जो आवे सो करो, आप ही दुःख भोगोगे । इसमें हम लोगों का क्या ? हम बूढ़ी , आज हैं, कल नहीं । हम तुम्हारी ही भलाई के लिए कहती सुनती हैं।
यद्यपि माँ ने यह बात पिता से न कहने ही के ऊपर ज़ोर दिया था ता भी थोड़ी ही देर के बाद मैंने सुना कि उन्होंने सब बातें पिता जी से जाकर कह सुनाई । वे सब बातें ध्यानपूर्वक सुन कर लम्बी साँस लेकर बोले—लड़के को कुबुद्धि ने आ घेरा है । उसके भाग्य में कष्ट बदा है। अपने