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मिट्टी के बर्तन बनाना औंर रोटी पकाना।


ओखली बना लूँगा। किन्तु वैसा एक भी पत्थर कहीं गिरा पड़ा दिखाई नहीं दिया। पहाड़ पर उसकी कमी न थी, किन्तु पहाड़ पर से काट कर या खोद कर ले श्राना मेरे सामर्थ्य से बाहर की बात थी। एक बात यह भी थी कि सभी पत्थरों में बालू के कण मिले रहते हैं। ऐसे पत्थर की ओखली बनेगी भी तो वह मसूल का आघात सह न सकेगी। मान लो, यदि सह भी ले तो आटे या चावल में बालू के कण किच किच करेंगे ही। यह सोच विचार कर मैंने पत्थर से काम निकालने की आशा छोड़ दी और सख्त लकड़ी का एक ऐसा कुन्दा ढूँढ़ने लगा जिसको मैं अकेले लुढ़का कर घर पर ला सकूँ। ऐसा कुन्दा ढूँढ निकाला। उसको कुल्हाड़ी से काट कर पहले ढोलक की तरह दोनों ओर चिपटा और बीच में गोल बनाया। फिर उसके नीचे और ऊपर के हिस्से को मोटा रख कर बीच के हिस्से को चारा और से छाँट कर कुछ पतला किया।

अब उसका आकार बहुत कुछ डमरू का सा हुआ। फिर उसे खड़ा करके ऊपर के भाग को कुल्हाड़ी से खोद कर और उसके मध्य भाग को आग से जला कर किसी तरह खोखला किया। मैंने जिस कठोर वृक्ष के कुन्दे की ओखली बनाई उसी पेड़ की एक सीधी डाल काट कर ले आया और उसे कुल्हाड़ी से काटकर खम्भे के श्राकार का लम्बा सा मूसल बना लिया। ओखली-मुसल तैयार हो जाने पर उन्हें आगामी फसल की उपयोगिता की आशा पर रख छोड़ा। अब चिन्ता इस बात की रही कि फसल उपजने पर मैदा बना करके रोटी कैसे बनाऊँगा।