इस द्वीप में निवास करते मेरा तीसरा साल इन्हीं सब कामों में कट गया। इसी बीच मैं अपनी फसल काट कर घर ले आया और उसे टोकरे में भर भर कर हिफाज़त से घर के भीतर रख दिया।
अब मेरे पास अन्न की कमी न रही । मैं अब दिल खोल कर अन्न खर्च करने लगा। खूब रोटी पकाता और भर पेट खाता था। मुझे अब अन्न रखने के लिए बुखारी की ज़रूरत हुई । मैं अन्न की बदौलत इस समय एक अच्छा मातवर आदमी बन गया।
नौका-गठन
जब मैं इन झमेलों को लेकर व्यस्त था तब भी मेरा मन इस जनशून्य द्वीप से मुक्ति पाने के लिए चिन्तित रहा करता था। मैंने इस द्वीप के अन्य भाग से जबसे दूर से स्थलचिह्न देखा था तबसे मेरा जी वहाँ जाने के लिए पातुर हो रहा था। यदि मैं महादेश के किसी अंश में पहुँच जाऊँगा तो घूमते फिरते किसी न किसी दिन स्वदेश का मुँह देख सगा, अथवा जनसमूह में पहुँच जाने से भी कोई न कोई उपाय होगा। मैं मन में यही मन के लड्डू खा रहा था। किन्तु उस समय यह चिन्ता मेरे मन में एक बार भी उदित न होती थी कि यदि कहीं असभ्य जंगली मनुष्यों या हिंस्त्र पशुओं के बीच पहुँच गया तो मेरी क्या दुर्दशा होगी-वे दुष्ट जन्तु मुझे किस निर्दयता के साथ मार कर खा जायँगे। मेरे चित्त को तो एक यही चिन्ता धेरे रहती थी कि इस द्वीप से कब अन्यत्र जाऊँगा।